पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अशुद्धद्रष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम् । मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्तं वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीय-कर्मक्षयोपशमेन मूर्तं वस्तु पश्यति च । यथा श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेणद्रव्यश्रुतनिगदितमूर्तामूर्तसमस्तं वस्तुजातं परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुर्दर्शनावरणीय-कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च । यथाअवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंतं मूर्तद्रव्यं जानाति तथा अवधि-दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यति च ।अत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीतिपर्यायः । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मःआगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढानिवृद्धिविकल्पयुतः । अनंतभागवृद्धिः असंख्यात-भागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनंतगुणवृद्धिः, तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति । (कलश--मालिनी) अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् । भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धद्रष्टिः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥२४॥ (कलश--मालिनी) इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा । सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल सत्वम् ॥२५॥ (कलश--पृथ्वी) क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः । सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा ॥२६॥ यह, अशुद्ध दर्शन की तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना है ।
परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः । अर्थात् जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है । उसमें, स्वभाव-पर्याय
(कलश--वीर)
परभाव होने पर भी, सहज-गुण-मणि की खानरूप तथा पूर्ण-ज्ञानवाले शुद्ध-आत्मा को एक को जो तीक्ष्ण-बुद्धिवाला शुद्ध-दृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का (मुक्ति-सुन्दरी का) वल्लभ बनता है ।परभावों के होने पर भी परभावों से भिन्न जीव है । सहजगुणों की मणियों का निधि है संपूरण शुद्ध जीव यह ॥ ज्ञानानन्दी शुद्ध जीव को शुद्ध-दृष्टि से जो भजते हैं । वही पुरुष सुखमय अविनाशी मुक्ति-सुंदरी को वरते हैं ॥२४॥ (कलश--वीर)
इसप्रकार पर गुण-पर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषों के हृदय-कमल में कारण-आत्मा विराजमान है । अपने से उत्पन्न ऐसे उस परम-ब्रह्मरूप समयसार को, कि जिसे तू भज रहा है उसे, हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है ।इसप्रकार गुण-पर्यायों के होने पर भी कारण-आतम । गहराई से राजमान है श्रेष्ठनरों के हृदय-कमल में ॥ स्वयं प्रतिष्ठित समयसारमय शुद्धात्म को हे भव्योत्तम । अभी भज रहे अरे उसी को गहराई से भजो निरन्तर ॥२५॥ (कलश--रोला)
जीव-तत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता (दिखाई देता) है, क्वचित् अशुद्ध-रूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज-पर्यायों सहित विलसता है और क्वचित् अशुद्ध-पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे रहित है ऐसे इस जीव-तत्त्व को मैं सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ ।
क्वचित् सद्गुणों से आतम शोभायमान है । असत् गुणों से युक्त क्वचित् देखा जाता है ॥ इसी तरह है क्वचित् सहज पर्यायवान पर । क्वचित् अशुभ पर्यायों वाला है यह आतम ॥ सदा सहित होने पर भी जो सदा रहित है । इन सबसे जो जीव उसी को मैं भाता हूँ ॥ सब अर्थों की सिद्धि हेतु हे भविजन जानो । सहज आतमाराम उसी को मैं ध्याता हूँ ॥२६॥ |