+ दर्शनोपयोग के भेद -
चक्खु अचक्खू ओही तिण्णि वि भणिदं विहावदिट्ठि त्ति ।
पज्जाओ दुवियप्पो सपरावेक्खो य णिरवेक्खो ॥14॥
चक्षुरचक्षुरवधयस्तिस्रोपि भणिता विभावद्रष्टय इति ।
पर्यायो द्विविकल्पः स्वपरापेक्षश्च निरपेक्षः ॥१४॥
चक्षु, अचक्षु, अवधि दर्शन ये विभाविक दर्श हैं ।
निरपेक्ष, स्वपरापेक्ष - ये पर्याय द्विविध विकल्प हैं ॥१४॥
अन्वयार्थ : [चक्षुरचक्षुरवधयः] चक्षु, अचक्षु और अवधि [तिस्रः अपि] यह तीनों [विभावदृष्टयः] विभाव-दर्शन [इति भणिताः] कहे गये हैं । [पर्यायः द्विविकल्पः] पर्याय द्विविध है : [स्वपरापेक्षः] स्वपरापेक्ष (स्व और परकी अपेक्षा युक्त) [च] और [निरपेक्षः] निरपेक्ष ।
Meaning :  Non-natural conation is said to be of three kinds: Ocular (Chakshu Darshana). Non ocular (Achakshu Darshana) and visual (AvadhiDarshana). Modification (is) of two kinds, irrelative (natural, Svabhava Paryaya) and relative to itself and others (i. e., Nonnatural, Vibhava paryaya)

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अशुद्धद्रष्टिशुद्धाशुद्धपर्यायसूचनेयम् ।

मतिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन यथा मूर्तं वस्तु जानाति तथा चक्षुर्दर्शनावरणीय-कर्मक्षयोपशमेन मूर्तं वस्तु पश्यति च । यथा श्रुतज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन श्रुतद्वारेणद्रव्यश्रुतनिगदितमूर्तामूर्तसमस्तं वस्तुजातं परोक्षवृत्त्या जानाति तथैवाचक्षुर्दर्शनावरणीय-कर्मक्षयोपशमेन स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रद्वारेण तत्तद्योग्यविषयान् पश्यति च । यथाअवधिज्ञानावरणीयकर्मक्षयोपशमेन शुद्धपुद्गलपर्यंतं मूर्तद्रव्यं जानाति तथा अवधि-दर्शनावरणीयकर्मक्षयोपशमेन समस्तमूर्तपदार्थं पश्यति च ।अत्रोपयोगव्याख्यानानन्तरं पर्यायस्वरूपमुच्यते । परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीतिपर्यायः । अत्र स्वभावपर्यायः षड्द्रव्यसाधारणः अर्थपर्यायः अवाङ्मनसगोचरः अतिसूक्ष्मःआगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढानिवृद्धिविकल्पयुतः । अनंतभागवृद्धिः असंख्यात-भागवृद्धिः संख्यातभागवृद्धिः संख्यातगुणवृद्धिः असंख्यातगुणवृद्धिः अनंतगुणवृद्धिः, तथा हानिश्च नीयते । अशुद्धपर्यायो नरनारकादिव्यंजनपर्याय इति ।

(कलश--मालिनी)
अथ सति परभावे शुद्धमात्मानमेकं
सहजगुणमणीनामाकरं पूर्णबोधम् ।
भजति निशितबुद्धिर्यः पुमान् शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥२४॥

(कलश--मालिनी)
इति परगुणपर्यायेषु सत्सूत्तमानां
हृदयसरसिजाते राजते कारणात्मा ।
सपदि समयसारं तं परं ब्रह्मरूपं
भज भजसि निजोत्थं भव्यशार्दूल सत्वम् ॥२५॥

(कलश--पृथ्वी)
क्वचिल्लसति सद्गुणैः क्वचिदशुद्धरूपैर्गुणैः
क्वचित्सहजपर्ययैः क्वचिदशुद्धपर्यायकैः ।
सनाथमपि जीवतत्त्वमनाथं समस्तैरिदं
नमामि परिभावयामि सकलार्थसिद्धयै सदा ॥२६॥


यह, अशुद्ध दर्शन की तथा शुद्ध और अशुद्ध पर्याय की सूचना है ।

  • जिसप्रकार मति-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से (जीव) मूर्त वस्तु को जानता है, उसीप्रकार चक्षु-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से (जीव) मूर्त वस्तु को देखता है ।
  • जिसप्रकार श्रुत-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम से (जीव) श्रुत द्वारा द्रव्य-श्रुत ने कहे हुए मूर्त-अमूर्त समस्त वस्तु-समूह को परोक्ष रीति से जानता है, उसीप्रकार अचक्षु-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से (जीव) स्पर्शन, रसन, घ्राण और श्रोत्र द्वारा उस-उसके योग्य विषयों को देखता है ।
  • जिसप्रकार अवधि-ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशमसे (जीव) शुद्ध-पुद्गलपर्यंत (परमाणु तक के) मूर्त-द्रव्य को जानता है, उसीप्रकार अवधि-दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से (जीव) समस्त मूर्त पदार्थ को देखता है ।
(उपरोक्तानुसार) उपयोग का व्याख्यान करने के पश्चात् यहाँ पर्याय का स्वरूप कहा जाता है :

परि समन्तात् भेदमेति गच्छतीति पर्यायः ।
अर्थात् जो सर्व ओर से भेद को प्राप्त करे सो पर्याय है । उसमें, स्वभाव-पर्याय
  • छह द्रव्यों को साधारण है,
  • अर्थ-पर्याय है,
  • वाणी और मन के अगोचर है,
  • अति सूक्ष्म है,
  • आगम-प्रमाण से स्वीकार करने योग्य तथा
  • छह हानि-वृद्धि के भेदों सहित है अर्थात् अनन्तभाग वृद्धि, असंख्यातभाग वृद्धि, संख्यातभाग वृद्धि, संख्यातगुण वृद्धि, असंख्यातगुण वृद्धि और अनन्तगुण वृद्धि सहित होती है और इसीप्रकार (वृद्धि की भाँति) हानि भी लगाई जाती है ।
अशुद्ध-पर्याय नर-नारकादि व्यंजन-पर्याय है ।

(कलश--वीर)
परभावों के होने पर भी परभावों से भिन्न जीव है ।
सहजगुणों की मणियों का निधि है संपूरण शुद्ध जीव यह ॥
ज्ञानानन्दी शुद्ध जीव को शुद्ध-दृष्टि से जो भजते हैं ।
वही पुरुष सुखमय अविनाशी मुक्ति-सुंदरी को वरते हैं ॥२४॥
परभाव होने पर भी, सहज-गुण-मणि की खानरूप तथा पूर्ण-ज्ञानवाले शुद्ध-आत्मा को एक को जो तीक्ष्ण-बुद्धिवाला शुद्ध-दृष्टि पुरुष भजता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी कामिनी का (मुक्ति-सुन्दरी का) वल्लभ बनता है ।

(कलश--वीर)
इसप्रकार गुण-पर्यायों के होने पर भी कारण-आतम ।
गहराई से राजमान है श्रेष्ठनरों के हृदय-कमल में ॥
स्वयं प्रतिष्ठित समयसारमय शुद्धात्म को हे भव्योत्तम ।
अभी भज रहे अरे उसी को गहराई से भजो निरन्तर ॥२५॥
इसप्रकार पर गुण-पर्यायें होने पर भी, उत्तम पुरुषों के हृदय-कमल में कारण-आत्मा विराजमान है । अपने से उत्पन्न ऐसे उस परम-ब्रह्मरूप समयसार को, कि जिसे तू भज रहा है उसे, हे भव्यशार्दूल (भव्योत्तम), तू शीघ्र भज; तू वह है ।

(कलश--रोला)
क्वचित् सद्गुणों से आतम शोभायमान है ।
असत् गुणों से युक्त क्वचित् देखा जाता है ॥
इसी तरह है क्वचित् सहज पर्यायवान पर ।
क्वचित् अशुभ पर्यायों वाला है यह आतम ॥
सदा सहित होने पर भी जो सदा रहित है ।
इन सबसे जो जीव उसी को मैं भाता हूँ ॥
सब अर्थों की सिद्धि हेतु हे भविजन जानो ।
सहज आतमाराम उसी को मैं ध्याता हूँ ॥२६॥
जीव-तत्त्व क्वचित् सद्गुणों सहित विलसता (दिखाई देता) है, क्वचित् अशुद्ध-रूप गुणों सहित विलसता है, क्वचित् सहज-पर्यायों सहित विलसता है और क्वचित् अशुद्ध-पर्यायों सहित विलसता है । इन सबसे सहित होने पर भी जो इन सबसे रहित है ऐसे इस जीव-तत्त्व को मैं सकल अर्थ की सिद्धि के लिये सदा नमता हूँ, भाता हूँ ।