पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
चतुर्गतिस्वरूपनिरूपणाख्यानमेतत् । मनोरपत्यानि मनुष्याः । ते द्विविधाः, कर्मभूमिजा भोगभूमिजाश्चेति । तत्रकर्मभूमिजाश्च द्विविधाः, आर्या म्लेच्छाश्चेति । आर्याः पुण्यक्षेत्रवर्तिनः । म्लेच्छाःपापक्षेत्रवर्तिनः । भोगभूमिजाश्चार्यनामधेयधरा जघन्यमध्यमोत्तमक्षेत्रवर्तिनः एकद्वित्रि-पल्योपमायुषः । रत्नशर्करावालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभिधानसप्तपृथ्वीनां भेदान्नारकजीवाःसप्तधा भवन्ति । प्रथमनरकस्य नारका ह्येकसागरोपमायुषः । द्वितीयनरकस्य नारकाःत्रिसागरोपमायुषः । तृतीयस्य सप्त । चतुर्थस्य दश । पंचमस्य सप्तदश । षष्ठस्य द्वाविंशतिः ।सप्तमस्य त्रयस्त्रिंशत् । अथ विस्तरभयात् संक्षेपेणोच्यते । तिर्यञ्चः सूक्ष्मैकेन्द्रियपर्याप्तका-पर्याप्तकबादरैकेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकद्वींद्रियपर्याप्तकापर्याप्तकत्रीन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तक- चतुरिन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकासंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकसंज्ञिपंचेन्द्रियपर्याप्तकापर्याप्तकभेदा-च्चतुर्दशभेदा भवन्ति । भावनव्यंतरज्योतिःकल्पवासिकभेदाद्देवाश्चतुर्णिकायाः । एतेषां चतुर्गति-जीवभेदानां भेदो लोकविभागाभिधानपरमागमे द्रष्टव्यः । इहात्मस्वरूपप्ररूपणान्तरायहेतुरिति पूर्वसूरिभिः सूत्रकृद्भिरनुक्त इति । (कलश--मन्दाक्रांता) स्वर्गे वाऽस्मिन्मनुजभुवने खेचरेन्द्रस्य दैवा- ज्ज्योतिर्लोके फ णपतिपुरे नारकाणां निवासे । अन्यस्मिन् वा जिनपतिभवने कर्मणां नोऽस्तु सूतिः भूयो भूयो भवतु भवतः पादपङ्केजभक्ति : ॥२८॥ (कलश--शार्दूलविक्रीडित) नानानूननराधिनाथविभवानाकर्ण्य चालोक्य च त्वं क्लिश्नासि मुधात्र किं जडमते पुण्यार्जितास्ते ननु । तच्छक्ति र्जिननाथपादकमलद्वन्द्वार्चनायामियं भक्ति स्ते यदि विद्यते बहुविधा भोगाः स्युरेते त्वयि ॥२९॥ यह, चार गति के स्वरूप-निरूपणरूप कथन है । मनु की सन्तान वह मनुष्य हैं । वे दो प्रकार के हैं : कर्म-भूमिज और भोग-भूमिज । उनमें
(कलश--वीर)
(हे जिनेन्द्र !) दैवयोग से मैं स्वर्ग में होऊँ , इस मनुष्य-लोक में होऊँ, विद्याधर के स्थान में होऊँ , ज्योतिष्क देवों के लोक में होऊँ , नागेन्द्र के नगर में होऊँ , नारकों के निवास में होऊँ , जिनपति के भवन में होऊँ या अन्य चाहे जिस स्थान पर होऊँ, (परन्तु) मुझे कर्म का उद्भव न हो, पुनः पुनः आपके पाद-पंकज की भक्ति हो ।दैवयोग से मानुष भव में विद्याधर के भवनों में । स्वर्गों में नरकों में अथवा नागपती के नगरों में ॥ जिनमंदिर या अन्य जगह या ज्योतिषियों के भवनों में । कहीं रहूँ पर भक्ति आपकी रहे निरंतर नजरों में ॥२८॥ (कलश--रोला)
नराधिपतियों के अनेकविध महा वैभवों को सुनकर तथा देखकर,हे जड़मति, तू यहाँ व्यर्थ ही क्लेश क्यों प्राप्त करता है ! वे वैभव सचमुच पुण्य से प्राप्त होते हैं । वह (पुण्योपार्जन की) शक्ति जिननाथ के पाद-पद्म-युगल की पूजा में है; यदि तुझे उन जिन-पाद-पद्मों की भक्ति हो, तो वे बहुविध भोग तुझे (अपने आप) होंगे ।
अरे देखकर नराधिपों का वैभव जड़मति । क्यों पाते हो क्लेश पुण्य से यह मिलता है ॥ पुण्य प्राप्त होता है जिनवर की पूजन से । यदि हृदय में भक्ति स्वयं सब पा जाओगे ॥२९॥ |