पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकारकथनमिदम् । आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानांभोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्तम् । (कलश--मालिनी) अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको यः परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् । सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ॥३०॥ (कलश--अनुष्टुभ्) भावकर्मनिरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम् । द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ॥३१॥ (कलश--वसन्ततिलका) संज्ञानभावपरिमुक्त विमुग्धजीवः कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म । निर्मुक्ति मार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके ॥३२॥ (कलश--वसन्ततिलका) यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे । मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः ॥३३॥ (कलश--मालिनी) असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम् । हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं न खलु न खलु मुक्ति र्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात् ॥३४॥ (कलश--मालिनी) भविनि भवगुणाः स्युः सिद्धजीवेऽपि नित्यं निजपरमगुणाः स्युः सिद्धिसिद्धाः समस्ताः । व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि- र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम् ॥३५॥ यह, कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्रकार का कथन है । आत्मा
(कलश--दोहा)
सकल मोह-राग-द्वेष वाला जो कोई पुरुष परम गुरु के चरण-कमल-युगल की सेवा के प्रसाद से निर्विकल्प सहज समयसार को जानता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी सुन्दरी का प्रिय कान्त होता है ।परमगुरु की कृपा से मोही रागी जीव । समयसार को जानकर शिव श्री लहे सदीव ॥३०॥ (कलश--दोहा)
भाव-कर्म के निरोध से द्रव्य-कर्म का निरोध होता है; द्रव्य-कर्म के निरोध से संसार का निरोध होता है ।भावकरम के रोध से द्रव्य करम का रोध । द्रव्यकरम के रोध से हो संसार निरोध ॥३१॥ (कलश--सोरठा)
जो जीव सम्यग्ज्ञान भाव-रहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) है, वह जीव शुभाशुभ अनेक-विध कर्म को करता हुआ मोक्ष-मार्ग को लेशमात्र भी वांछना नहीं जानता; उसे लोक में (कोई) शरण नहीं है ।करें शुभाशुभभाव, मुक्तिमार्ग जाने नहीं । अशरण रहें सदीव मोह मुग्ध अज्ञानि जन ॥३२॥ (कलश--दोहा)
जो समस्त कर्म-जनित सुख-समूह को परिहरण करता है, वह भव्य-पुरुष निष्कर्म सुख-समूहरूपी अमृत के सरोवर में मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशय-चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज-भाव को प्राप्त करता है ।कर्म-जनित सुख त्यागकर निज में रमें सदीव । परम अतीन्द्रिय सुख लहें वे निष्कर्मी जीव ॥३३॥ (कलश--दोहा)
(हमारे आत्म-स्वभाव में) विभाव असत् होने से उसकी हमें चिन्ता नहीं है; हम तो हृदय-कमल में स्थित, सर्व-कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं हि है ।हममें कोई विभाव न हमें न चिन्ता कोई । शुद्धातम में मगन हम अन्योपाय न होई ॥३४॥ (रोला)
संसारी में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में सदा समस्त सिद्धिसिद्ध (मोक्षसे सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण हुए) निज परमगुण होते हैं -- इसप्रकार व्यवहारनय है । निश्चय से तो सिद्ध भी नहीं है और संसार भी नहीं है । यह बुध पुरुषों का निर्णय है ।
संसारी के समलभाव पाये जाते हैं । और सिद्ध जीवों के निर्मलभाव सदा हों ॥ कहता यह व्यवहार किन्तु बुधजन का निर्णय । निश्चय से शुद्धातम में न बंध-मोक्ष हों ॥३५॥ |