+ आत्मा का कर्तत्व-भोक्तृत्व -
कत्ता भोत्ता आदा पोग्गलकम्मस्स होदि ववहारा ।
कम्मजभावेणादा कत्ता भोत्ता दु णिच्छयदो ॥18॥
कर्ता भोक्ता आत्मा पुद्गलकर्मणो भवति व्यवहारात् ।
कर्मजभावेनात्मा कर्ता भोक्ता तु निश्चयतः ॥१८॥
यह जीव करता-भोगता जड़कर्म का व्यवहार से ।
किन्तु कर्मजभाव का कर्ता कहा परमार्थ से ॥१८॥
अन्वयार्थ : [आत्मा] आत्मा [पुद्गलकर्मणः] पुद्गल-कर्म का [कर्ता भोक्ता] कर्ता-भोक्ता [व्यवहारात्] व्यवहार से [भवति] है [तु] और [आत्मा] आत्मा [कर्मजभावेन] कर्म-जनित भाव का [कर्ता भोक्ता] कर्ता-भोक्ता [निश्चयतः] (अशुद्ध) निश्चय से है ।
Meaning : From the practical point of view, a mundane soul causes (the bondage of) material Karmas and experiences (their results); but from the (impure) real point. of view the soul creates (and) experiences thought-activities arising through the (effect of) Karmas.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
कर्तृत्वभोक्तृत्वप्रकारकथनमिदम् ।

आसन्नगतानुपचरितासद्भूतव्यवहारनयाद् द्रव्यकर्मणां कर्ता तत्फलरूपाणां सुखदुःखानांभोक्ता च, आत्मा हि अशुद्धनिश्चयनयेन सकलमोहरागद्वेषादिभावकर्मणां कर्ता भोक्ता च, अनुपचरितासद्भूतव्यवहारेण नोकर्मणां कर्ता, उपचरितासद्भूतव्यवहारेण घटपटशकटादीनां कर्ता । इत्यशुद्धजीवस्वरूपमुक्तम् ।

(कलश--मालिनी)
अपि च सकलरागद्वेषमोहात्मको यः
परमगुरुपदाब्जद्वन्द्वसेवाप्रसादात् ।
सहजसमयसारं निर्विकल्पं हि बुद्ध्वा
स भवति परमश्रीकामिनीकान्तकान्तः ॥३०॥

(कलश--अनुष्टुभ्)
भावकर्मनिरोधेन द्रव्यकर्मनिरोधनम् ।
द्रव्यकर्मनिरोधेन संसारस्य निरोधनम् ॥३१॥

(कलश--वसन्ततिलका)
संज्ञानभावपरिमुक्त विमुग्धजीवः
कुर्वन् शुभाशुभमनेकविधं स कर्म ।
निर्मुक्ति मार्गमणुमप्यभिवाञ्छितुं नो
जानाति तस्य शरणं न समस्ति लोके ॥३२॥

(कलश--वसन्ततिलका)
यः कर्मशर्मनिकरं परिहृत्य सर्वं
निष्कर्मशर्मनिकरामृतवारिपूरे ।
मज्जन्तमत्यधिकचिन्मयमेकरूपं
स्वं भावमद्वयममुं समुपैति भव्यः ॥३३॥

(कलश--मालिनी)
असति सति विभावे तस्य चिन्तास्ति नो नः
सततमनुभवामः शुद्धमात्मानमेकम् ।
हृदयकमलसंस्थं सर्वकर्मप्रमुक्तं
न खलु न खलु मुक्ति र्नान्यथास्त्यस्ति तस्मात् ॥३४॥

(कलश--मालिनी)
भविनि भवगुणाः स्युः सिद्धजीवेऽपि नित्यं
निजपरमगुणाः स्युः सिद्धिसिद्धाः समस्ताः ।
व्यवहरणनयोऽयं निश्चयान्नैव सिद्धि-
र्न च भवति भवो वा निर्णयोऽयं बुधानाम् ॥३५॥


यह, कर्तृत्व-भोक्तृत्व के प्रकार का कथन है ।

आत्मा
  • निकटवर्ती अनुपचरित असद्भूत व्यवहारनय से द्रव्य-कर्म का कर्ता और उसके फलरूप सुख-दुःख का भोक्ता है,
  • अशुद्ध निश्चयनय से समस्त मोह-राग-द्वेषादि भाव-कर्म का कर्ता और भोक्ता है,
  • अनुपचरित असद्भूत व्यवहार से (देहादि) नोकर्म का कर्ता है,
  • उपचरित असद्भूत व्यवहार से घट-पट-शकटादि का (घड़ा, वस्त्र, बैलगाड़ी इत्यादि का) कर्ता है ।
इसप्रकार अशुद्ध-जीव का स्वरूप कहा ।

(कलश--दोहा)
परमगुरु की कृपा से मोही रागी जीव ।
समयसार को जानकर शिव श्री लहे सदीव ॥३०॥
सकल मोह-राग-द्वेष वाला जो कोई पुरुष परम गुरु के चरण-कमल-युगल की सेवा के प्रसाद से निर्विकल्प सहज समयसार को जानता है, वह पुरुष परमश्रीरूपी सुन्दरी का प्रिय कान्त होता है ।

(कलश--दोहा)
भावकरम के रोध से द्रव्य करम का रोध ।
द्रव्यकरम के रोध से हो संसार निरोध ॥३१॥
भाव-कर्म के निरोध से द्रव्य-कर्म का निरोध होता है; द्रव्य-कर्म के निरोध से संसार का निरोध होता है ।

(कलश--सोरठा)
करें शुभाशुभभाव, मुक्तिमार्ग जाने नहीं ।
अशरण रहें सदीव मोह मुग्ध अज्ञानि जन ॥३२॥
जो जीव सम्यग्ज्ञान भाव-रहित विमुग्ध (मोही, भ्रान्त) है, वह जीव शुभाशुभ अनेक-विध कर्म को करता हुआ मोक्ष-मार्ग को लेशमात्र भी वांछना नहीं जानता; उसे लोक में (कोई) शरण नहीं है ।

(कलश--दोहा)
कर्म-जनित सुख त्यागकर निज में रमें सदीव ।
परम अतीन्द्रिय सुख लहें वे निष्कर्मी जीव ॥३३॥
जो समस्त कर्म-जनित सुख-समूह को परिहरण करता है, वह भव्य-पुरुष निष्कर्म सुख-समूहरूपी अमृत के सरोवर में मग्न होते हुए ऐसे इस अतिशय-चैतन्यमय, एकरूप, अद्वितीय निज-भाव को प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
हममें कोई विभाव न हमें न चिन्ता कोई ।
शुद्धातम में मगन हम अन्योपाय न होई ॥३४॥
(हमारे आत्म-स्वभाव में) विभाव असत् होने से उसकी हमें चिन्ता नहीं है; हम तो हृदय-कमल में स्थित, सर्व-कर्म से विमुक्त, शुद्ध आत्मा का एक का सतत अनुभवन करते हैं, क्योंकि अन्य किसी प्रकार से मुक्ति नहीं है, नहीं है, नहीं हि है ।

(रोला)
संसारी के समलभाव पाये जाते हैं ।
और सिद्ध जीवों के निर्मलभाव सदा हों ॥
कहता यह व्यवहार किन्तु बुधजन का निर्णय ।
निश्चय से शुद्धातम में न बंध-मोक्ष हों ॥३५॥
संसारी में सांसारिक गुण होते हैं और सिद्ध जीव में सदा समस्त सिद्धिसिद्ध (मोक्षसे सिद्ध अर्थात् परिपूर्ण हुए) निज परमगुण होते हैं -- इसप्रकार व्यवहारनय है । निश्चय से तो सिद्ध भी नहीं है और संसार भी नहीं है । यह बुध पुरुषों का निर्णय है ।