पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि नयद्वयस्य सफ लत्वमुक्त म् ।द्वौ हि नयौ भगवदर्हत्परमेश्वरेण प्रोक्तौ, द्रव्यार्थिकः पर्यायार्थिकश्चेति । द्रव्यमेवार्थःप्रयोजनमस्येति द्रव्यार्थिकः । पर्याय एवार्थः प्रयोजनमस्येति पर्यायार्थिकः । न खलु एकनया-यत्तोपदेशो ग्राह्यः, किन्तु तदुभयनयायत्तोपदेशः । सत्ताग्राहकशुद्धद्रव्यार्थिकनयबलेन पूर्वोक्त -व्यञ्जनपर्यायेभ्यः सकाशान्मुक्तामुक्त समस्तजीवराशयः सर्वथा व्यतिरिक्ता एव । कुतः ? 'सव्वेसुद्धा हु सुद्धणया' इति वचनात् । विभावव्यंजनपर्यायार्थिकनयबलेन ते सर्वे जीवास्संयुक्ताभवन्ति । किंच सिद्धानामर्थपर्यायैः सह परिणतिः, न पुनर्व्यंजनपर्यायैः सह परिणतिरिति । कुतः ? सदा निरंजनत्वात् । सिद्धानां सदा निरंजनत्वे सति तर्हि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिकनयाभ्याम् द्वाभ्याम् संयुक्ताः सर्वे जीवा इति सूत्रार्थो व्यर्थः । निगमो विकल्पः, तत्र भवो नैगमः । सच नैगमनयस्तावत् त्रिविधः, भूतनैगमः वर्तमाननैगमः भाविनैगमश्चेति । अत्रभूतनैगमनयापेक्षया भगवतां सिद्धानामपि व्यंजनपर्यायत्वमशुद्धत्वं च संभवति । पूर्वकाले तेभगवन्तः संसारिण इति व्यवहारात् । किं बहुना, सर्वे जीवा नयद्वयबलेन शुद्धाशुद्धा इत्यर्थः । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः — (मालिनी) उभयनयविरोधध्वंसिनि स्यात्पदांके जिनवचसि रमन्ते ये स्वयं वान्तमोहाः । सपदि समयसारं ते परं ज्योतिरुच्चै- रनवमनयपक्षाक्षुण्णमीक्षन्त एव । तथा हि - (कलश--मालिनी) अथ नययुगयुक्तिं लंघयन्तो न सन्तः परमजिनपदाब्जद्वन्द्वमत्तद्विरेफाः । सपदि समयसारं ते ध्रुवं प्राप्नुवन्ति क्षितिषु परमतोक्ते: किं फलं सज्जनानाम् ॥३६॥ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव - विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ जीवाधिकारः प्रथमश्रुतस्कन्धः ॥ यहाँ दोनों नयों का सफलपना कहा है । भगवान अर्हत् परमेश्वर ने दो नय कहे हैं : द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक । द्रव्य ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह द्रव्यार्थिक है और पर्याय ही जिसका अर्थ अर्थात् प्रयोजन है वह पर्यायार्थिक है । एक नय का अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करने योग्य नहीं है किन्तु उन दोनों नयों का अवलम्बन लेनेवाला उपदेश ग्रहण करने योग्य है । सत्ता-ग्राहक (द्रव्य की सत्ता को ही ग्रहण करनेवाले) शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के बल से पूर्वोक्त व्यंजन-पर्यायों से मुक्त तथा अमुक्त (सिद्ध तथा संसारी) समस्त जीवराशि सर्वथा व्यतिरिक्त ही है । क्यों ? 'सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया (शुद्धनय से सर्व जीव वास्तव में शुद्ध हैं )' ऐसा (शास्त्र का) वचन होने से । विभाव व्यंजन-पर्यायार्थिक नय के बल से वे सर्व जीव (पूर्वोक्त व्यंजन-पर्यायों से) संयुक्त हैं । विशेष इतना कि - सिद्ध जीवों के अर्थ-पर्यायों सहित परिणति है, परन्तु व्यंजन-पर्यायों सहित परिणति नहीं है । क्यों ? सिद्ध जीव सदा निरंजन होने से । प्रश्न – यदि सिद्ध जीव सदा निरंजन हैं तो सर्व जीव द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दोनों नयों से संयुक्त हैं (अर्थात् सर्व जीवों को दोनों नय लागू होते हैं ) ऐसा सूत्रार्थ (गाथा का अर्थ) व्यर्थ सिद्ध होता है । उत्तर – (व्यर्थ सिद्ध नहीं होता क्योंकि) निगम अर्थात् विकल्प; उसमें हो वह नैगम । वह नैगमनय तीन प्रकार का है; भूत-नैगम, वर्तमान-नैगम और भावी-नैगम । यहाँ भूत-नैगमनय की अपेक्षा से भगवन्त सिद्धों को भी व्यंजन-पर्यायवानपना और अशुद्धपना सम्भवित होता है, क्योंकि पूर्वकाल में वे भगवन्त संसारी थे ऐसा व्यवहार है । बहु कथन से क्या ? सर्व जीव दो नयों के बल से शुद्ध तथा अशुद्ध हैं ऐसा अर्थ है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद्अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि :- (रोला)
दोनों नयों के विरोध को नष्ट करनेवाले, स्यात्पद से अंकित जिनवचन में जो पुरुष रमते हैं, वे स्वयमेव मोह का वमन करके, अनूतन (अनादि) और कुनय के पक्ष से खण्डित न होनेवाली ऐसी उत्तम परम-ज्योति को (समयसार को) शीघ्र देखते ही हैं ।उभयनयों में जो विरोध है उसके नाशक । स्याद्वादमय जिनवचनों में जो रमते हैं ॥ मोह वमन कर अनय-अखंडित परमज्योतिमय । स्वयं शीघ्र ही समयसार में वे रमते हैं ॥४॥ (कलश--रोला)
जो दो नयों के सम्बन्ध का उल्लंघन न करते हुए परम-जिन के पाद-पंकज-युगल में मत्त हुए भ्रमर समान हैं ऐसे जो सत्पुरुष वे शीघ्र समयसार को अवश्य प्राप्त करते हैं । पृथ्वी पर पर-मत के कथन से सज्जनों को क्या फल है (अर्थात् जगत के जैनेतर-दर्शनों के मिथ्या कथनों से सज्जनों को क्या लाभ है) ?जिन चरणों के प्रवर भक्त जिन सत्पुरुषों ने । नय-विभाग का नहीं किया हो कभी उल्लंघन ॥ वे पाते हैं समयसार यह निश्चित जानो । आवश्यक क्यों अन्य मतों का आलोड़न हो ॥३६॥ इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव-रहित देह-मात्र जिनको परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (अर्थात् श्रीमद्भगवत् कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) जीव अधिकार नाम का प्रथम श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ । |