पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
विभावपुद्गलस्वरूपाख्यानमेतत् ।अतिस्थूलस्थूला हि ते खलु पुद्गलाः सुमेरुकुम्भिनीप्रभृतयः । घृततैलतक्रक्षीर-जलप्रभृतिसमस्तद्रव्याणि हि स्थूलपुद्गलाश्च । छायातपतमःप्रभृतयः स्थूलसूक्ष्मपुद्गलाः ।स्पर्शनरसनघ्राणश्रोत्रेन्द्रियाणां विषयाः सूक्ष्मस्थूलपुद्गलाः शब्दस्पर्शरसगन्धाः । शुभाशुभ-परिणामद्वारेणागच्छतां शुभाशुभकर्मणां योग्याः सूक्ष्मपुद्गलाः । एतेषां विपरीताः सूक्ष्म-सूक्ष्मपुद्गलाः कर्मणामप्रायोग्या इत्यर्थः । अयं विभावपुद्गलक्रमः । तथा चोक्तं पंचास्तिकायसमये - पुढवी जलं च छाया चउरिंदियविसयकम्मपाओग्गा । कम्मातीदा एवं छब्भेया पोग्गला होंति ॥ उक्तं च मार्गप्रकाशे - (अनुष्टुभ्) स्थूलस्थूलास्ततः स्थूलाः स्थूलसूक्ष्मास्ततः परे । सूक्ष्मस्थूलास्ततः सूक्ष्माः सूक्ष्मसूक्ष्मास्ततः परे । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः- (वसंततिलका) अस्मिन्ननादिनि महत्यविवेकनाटये वर्णादिमान् नटति पुद्गल एव नान्यः । रागादिपुद्गलविकारविरुद्धशुद्ध- चैतन्यधातुमयमूर्तिरयं च जीवः ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) इति विविधविकल्पे पुद्गले द्रश्यमाने न च कुरु रतिभावं भव्यशार्दूल तस्मिन् । कुरु रतिमतुलां त्वं चिच्चमत्कारमात्रे भवसि हि परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥३८॥ यह, विभाव-पुद्गल के स्वरूप का कथन है । सुमेरु, पृथ्वी आदि (घन पदार्थ) वास्तव में अति स्थूल-स्थूल पुद्गल हैं । घी, तेल, मट्ठा, दूध, जल आदि समस्त (प्रवाही) पदार्थ स्थूल पुद्गल हैं । छाया, आतप, अन्धकारादि स्थूल-सूक्ष्म पुद्गल हैं । स्पर्शनेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय तथा श्रोत्रेन्द्रिय के विषय सूक्ष्म-स्थूल पुद्गल हैं । शुभाशुभ परिणाम द्वारा आनेवाले ऐसे शुभाशुभ कर्मों के योग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्म पुद्गल हैं । उनसे विपरीत अर्थात् कर्मों के अयोग्य (स्कन्ध) वे सूक्ष्म-सूक्ष्म पुद्गल हैं । ऐसा (इन गाथाओं का) अर्थ है । यह विभाव-पुद्गल का क्रम है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत् कुन्दकुन्दाचार्य देव प्रणीत) श्री पंचास्तिकायसमय में (गाथा द्वारा) कहा है कि :- पृथ्वी, जल, छाया, चार इन्द्रियों के विषयभूत, कर्म के योग्य और कर्मातीत इसप्रकार पुद्गल (स्कन्ध) छह प्रकार के हैं । और मार्गप्रकाश में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (सोरठा)
स्थूलस्थूल, पश्चात् स्थूल, तत्पश्चात् स्थूलसूक्ष्म, पश्चात् सूक्ष्मस्थूल, पश्चात् सूक्ष्म और तत्पश्चात् सूक्ष्मसूक्ष्म (इसप्रकार स्कन्ध छह प्रकारके हैं ) ।थूलथूल अर थूल स्थूल-सूक्ष्म पहिचानिये । सूक्षमथूलरु सूक्ष्म सूक्षम-सूक्षम जानिये ॥५॥ इसप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में ४४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
इस अनादिकालीन महा अविवेकके नाटकमें अथवा नाच में वर्णादिमान् पुद्गल ही नाचता है, अन्य कोई नहीं; (अभेद ज्ञान में पुद्गल ही अनेक प्रकार का दिखाई देता है, जीव तो अनेक प्रकार का है नहीं;) और यह जीव तो रागादिक पुद्गल-विकारों से विलक्षण, शुद्ध चैतन्यधातुमय मूर्ति है ।अरे काल अनादि से अविवेक के इस नृत्य में । बस एक पुद्गल नाचता चेतन नहीं इस कृत्य में ॥ यह जीव तो पुद्गलमयी रागादि से भी भिन्न है । आनन्दमय चिद्भाव तो दृगज्ञानमय चैतन्य है ॥६॥ और (कलश--दोहा)
इसप्रकार विविध भेदोंवाला पुद्गल दिखाई देने पर, हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम!) तू उसमें रतिभाव न कर । चैतन्य-चमत्कारमात्र (आत्मा) में तू अतुल रति कर कि जिससे तू परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होगा ।
पुद्गल में रति मत करो हे भव्योत्तम जीव । निज में रति से तुम रहो शिवश्री संग सदैव ॥३८॥ |