पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
मुख्यकालस्वरूपाख्यानमेतत् । जीवराशेः पुद्गलराशेः सकाशादनन्तगुणाः । के ते ? समयाः । कालाणवः लोका-काशप्रदेशेषु पृथक् पृथक् तिष्ठन्ति, स कालः परमार्थ इति । तथा चोक्तं प्रवचनसारे - समओ दु अप्पदेसो पदेसमेत्तस्स दव्वजादस्स । वदिवददो सो वट्टदि पदेसमागासदव्वस्स ॥ अस्यापि समयशब्देन मुख्यकालाणुस्वरूपमुक्तम् । अन्यच्च - लोयायासपदेसे एक्केक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का । रयणाणं रासी इव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ उक्तं च मार्गप्रकाशे - (अनुष्टुभ्) कालाभावे न भावानां परिणामस्तदंतरात् । न द्रव्यं नापि पर्यायः सर्वाभावः प्रसज्यते ॥ तथा हि - (कलश--अनुष्टुभ्) वर्तनाहेतुरेषः स्यात् कुम्भकृच्चक्रमेव तत् । पंचानामस्तिकायानां नान्यथा वर्तना भवेत् ॥४८॥ (कलश--अनुष्टुभ्) प्रतीतिगोचराः सर्वे जीवपुद्गलराशयः । धर्माधर्मनभः कालाः सिद्धाः सिद्धान्तपद्धतेः ॥४९॥ यह, मुख्य काल के स्वरूप का कथन है । जीवराशि से और पुद्गलराशि से अनन्तगुने हैं । कौन ? समय । कालाणु लोकाकाश के प्रदेशों में पृथक्-पृथक् स्थित हैं, वह काल परमार्थ है । उसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री प्रवचनसार में (१३८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- पुद्गलाणु मंदगति से चले जितने काल में
काल तो अप्रदेशी है । प्रदेशमात्र पुद्गल-परमाणु आकाश-द्रव्य के प्रदेश को मन्द-गति से लाँघता हो तब वह वर्तता है अर्थात् निमित्तभूतरूप से परिणमित होता है ।रे एक गगनप्रदेश पर परदेश विरहित काल वह ॥प्र.सा.१३८॥ इसमें (इस प्रवचनसार की गाथा में) भी 'समय' शब्द से मुख्य कालाणु का स्वरूप कहा है । और अन्यत्र (आचार्यवर श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचित बृहद्द्रद्रव्यसङ्ग्रह में २२वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :- जानलो इस लोक के जो एक-एक प्रदेश पर ।
लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में जो एक-एक कालाणु रत्नों की राशि की भाँति वास्तव में स्थित हैं, वे कालाणु असंख्य द्रव्य हैं ।रत्नराशिवत् जड़े वे असंख्य कालाणु दरव ॥द्र.सं.22॥ और मार्गप्रकाश में भी (श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश-दोहा)
काल के अभाव में, पदार्थों का परिणमन नहीं होगा; और परिणमन न हो तो, द्रव्य भी न होगा तथा पर्याय भी न होगी; इसप्रकार सर्व के अभाव का (शून्य का) प्रसंग आयेगा ।सब द्रव्यों में परिणमन काल बिना न होय । और परिणमन के बिना कोई वस्तु न होय ॥८॥ और (कलश-दोहा)
कुम्हार के चक्र की भाँति (अर्थात् जिसप्रकार घड़ा बनने में कुम्हार का चाक निमित्त है उसीप्रकार), यह परमार्थकाल (पाँच अस्तिकायों की) वर्तना का निमित्त है । उसके बिना, पाँच अस्तिकायों को वर्तना (परिणमन) नहीं हो सकती ।घट बनने में निमित्त है ज्यों कुम्हार का चक्र । द्रव्यों के परिणमन में त्यों निमित्त यह द्रव्य ॥ इसके बिन न कोई भी द्रव्य परिणमित होय । इसकारण ही सिद्ध रे इसकी सत्ता होय ॥४८॥ (कलश-दोहा)
सिद्धान्त-पद्धति से (शास्त्र-परम्परा से) सिद्ध ऐसे जीव-राशि, पुद्गल-राशि, धर्म, अधर्म, आकाश और काल सभी प्रतीति-गोचर हैं (अर्थात् छहों द्रव्यों की प्रतीति हो सकती है ) ।
जिन आगम आधार से धर्माधर्माकाश । जिय पुद्गल अर काल का होता है आभास ॥४९॥ |