पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
हेयोपादेयत्यागोपादानलक्षणकथनमिदम् । ये केचिद् विभावगुणपर्यायास्ते पूर्वं व्यवहारनयादेशादुपादेयत्वेनोक्ताः शुद्ध-निश्चयनयबलेन हेया भवन्ति । कुतः ? परस्वभावत्वात्, अत एव परद्रव्यं भवति । सकलविभावगुणपर्यायनिर्मुक्तं शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपं स्वद्रव्यमुपादेयम् । अस्य खलु सहज-ज्ञानसहजदर्शनसहजचारित्रसहजपरमवीतरागसुखात्मकस्य शुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपस्याधारः सहज-परमपारिणामिकभावलक्षणकारणसमयसार इति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचन्द्रसूरिभिः — (कलश--शार्दूलविक्रीडित) सिद्धान्तोऽयमुदात्तचित्तचरितैर्मोक्षार्थिभिः सेव्यतां शुद्धं चिन्मयमेकमेव परमं ज्योतिः सदैवास्म्यहम् । एते ये तु समुल्लसन्ति विविधा भावाः पृथग्लक्षणा- स्तेऽहं नास्मि यतोऽत्र ते मम परद्रव्यं समग्रा अपि ॥ तथा हि - (कलश--शालिनी) न ह्यस्माकं शुद्धजीवास्तिकाया- दन्ये सर्वे पुद्गलद्रव्यभावाः । इत्थं व्यक्तं वक्ति यस्तत्त्ववेदी सिद्धिं सोऽयं याति तामत्यपूर्वाम् ॥७४॥ यह, हेय-उपादेय अथवा त्याग-ग्रहण के स्वरूप का कथन है । जो कोई विभाव-गुण-पर्यायें हैं वे पहले (४९वीं गाथा में) व्यवहारनय के कथन द्वारा उपादेयरूप से कही गई थीं किन्तु शुद्ध निश्चयनय के बल से वे हेय हैं । किस कारण से ? क्योंकि वे पर-स्वभाव हैं, और इसीलिये पर-द्रव्य हैं । सर्व विभाव-गुण-पर्यायों से रहित शुद्ध-अन्तस्तत्त्व स्वरूप स्व-द्रव्य उपादेय है । वास्तव में सहज-ज्ञान, सहज-दर्शन, सहज-चारित्र, सहज-परम-वीतराग-सुखात्मक शुद्ध-अन्तस्तत्त्व स्वरूप इस स्व-द्रव्य का आधार सहज परम-पारिणामिक-भाव लक्षण (सहज परम पारिणामिक भाव जिसका लक्षण है ऐसा) कारण-समयसार है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में १८५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--हरिगीत)
जिनके चित्त का चरित्र उदात्त (उदार, उच्च, उज्ज्वल) है ऐसे मोक्षार्थी इस सिद्धान्त का सेवन करो कि - 'मैं तो शुद्ध चैतन्यमय एक परम ज्योति ही सदैव हूँ; और यह जो भिन्न लक्षणवाले विविध प्रकार के भाव प्रगट होते हैं वह मैं नहीं हूँ, क्योंकि वे सब मुझे पर-द्रव्य हैं' ।मैं तो सदा ही शुद्ध परमानन्द चिन्मयज्योति हूँ । सेवन करें सिद्धान्त यह सब ही मुमुक्षु बन्धुजन ॥ जो विविध परभाव मुझ में दिखें वे मुझसे पृथक् । वे मैं नहीं हूँ क्योंकि वे मेरे लिए परद्रव्य हैं ॥१६॥ और (कलश--सोरठा)
'शुद्ध जीवास्तिकाय से अन्य ऐसे जो सब पुद्गल-द्रव्य के भाव वे वास्तव में हमारे नहीं हैं' - ऐसा जो तत्त्ववेदी स्पष्टरूप से कहता है वह अति अपूर्व सिद्धि को प्राप्त होता है ।
वे न हमारे भाव, शुद्धातम से अन्य जो । ऐसे जिनके भाव, सिद्धि अपूरव वे लहें ॥७४॥ |