+ रत्नत्रय का स्वरूप -
विवरीयाभिणिवेसविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
संसयविमोहविब्भमविवज्जियं होदि सण्णाणं ॥51॥
चलमलिणमगाढत्तविवज्जियसद्दहणमेव सम्मत्तं ।
अधिगमभावो णाणं हेयोवादेयतच्चाणं ॥52॥
सम्मत्तस्स णिमित्तं जिणसुत्तं तस्स जाणया पुरिसा ।
अंतरहेऊ भणिदा दंसणमोहस्स खयपहुदी ॥53॥
सम्मत्तं सण्णाणं विज्जदि मोक्खस्स होदि सुण चरणं ।
ववहारणिच्छएण दु तम्हा चरणं पवक्खामि ॥54॥
ववहारणयचरित्ते ववहारणयस्स होदि तवचरणं ।
णिच्छयणयचारित्ते तवचरणं होदि णिच्छयदो ॥55॥
विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् ।
संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं भवति संज्ञानम् ॥५१॥
चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानमेव सम्यक्त्वम् ।
अधिगमभावो ज्ञानं हेयोपादेयतत्त्वानाम् ॥५२॥
सम्यक्त्वस्य निमित्तं जिनसूत्रं तस्य ज्ञायकाः पुरुषाः ।
अन्तर्हेतवो भणिताः दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः ॥५३॥
सम्यक्त्वं संज्ञानं विद्यते मोक्षस्य भवति शृणु चरणम् ।
व्यवहारनिश्चयेन तु तस्माच्चरणं प्रवक्ष्यामि ॥५४॥
व्यवहारनयचरित्रे व्यवहारनयस्य भवति तपश्चरणम् ।
निश्चयनयचारित्रे तपश्चरणं भवति निश्चयतः ॥५५॥
मिथ्याभिप्राय विहीन जो श्रद्धान वह सम्यक्त्व है ।
विभरम संशय मोह विरहित ज्ञान ही सद्ज्ञान है ॥५१॥
चल मल अगाढ़पने रहित श्रद्धान ही सम्यक्त्व है ।
आदेय हेय पदार्थ का ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान है ॥५२॥
जिन सूत्र समकित हेतु पर जो सूत्र के ज्ञायक पुरुष ।
वे अंतरंग निमित्त हैं दृग मोह क्षय के हेतु से ॥५३॥
सम्यक्त्व सम्यग्ज्ञान पूर्वक आचरण है मुक्तिमग ।
व्यवहार-निश्चय से अत: चारित्र की चर्चा करूँ ॥५४॥
व्यवहारनय चारित्र में व्यवहारनय तपचरण हो ।
नियतनय चारित्र में बस नियतनय तपचरण हो ॥५५॥
अन्वयार्थ : [विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानम् एव] विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम्] सम्यक्त्व है; [संशयविमोहविभ्रम-विवर्जितम्] संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) वह [संज्ञानम् भवति] सम्यग्ज्ञान है ।
[चलमलिनमगाढत्वविवर्जितश्रद्धानम् एव] चलता, मलिनता और अगाढ़ता रहित श्रद्धान ही [सम्यक्त्वम्] सम्यक्त्व है; [हेयोपादेयतत्त्वानाम्] हेय और उपादेय तत्त्वों को [अधिगमभावः] जाननेरूप भाव वह [ज्ञानम्] (सम्यक्) ज्ञान है ।
[सम्यक्त्वस्य निमित्तं] सम्यक्त्व का निमित्त [जिनसूत्रं] जिनसूत्र है; [तस्य ज्ञायकाःपुरुषाः] जिनसूत्र के जाननेवाले पुरुषों को [अन्तर्हेतवः] (सम्यक्त्व के) अन्तरंग हेतु [भणिताः] कहे हैं, [दर्शनमोहस्य क्षयप्रभृतेः] क्योंकि उनको दर्शनमोह के क्षयादिक हैं ।
[शृणु] सुन, [मोक्षस्य] मोक्ष के लिये [सम्यक्त्वं] सम्यक्त्व होता है, [संज्ञानं] सम्यग्ज्ञान [विद्यते] होता है, [चरणम्] चारित्र (भी) [भवति] होता है; [तस्मात्]
इसलिये [व्यवहारनिश्चयेन तु] मैं व्यवहार और निश्चय से [चरणं प्रवक्ष्यामि] चारित्र कहूँगा ।
[व्यवहारनयचरित्रे] व्यवहारनय के चारित्र में [व्यवहारनयस्य] व्यवहारनय का [तपश्चरणम्] तपश्चरण [भवति] होता है; [निश्चयनयचारित्रे] निश्चयनय के चारित्र में [निश्चयतः] निश्चय से [तपश्चरणम्] तपश्चरण [भवति] होता है ।
Meaning : Conviction (in things ascertained as they are) alone without (any) perverse motive (is) right belief, (Samyaka Darshana). (Knowledge) free from doubt, (Samshaya), perversity (Vinoha) and vaccilation (Vibhrama) is right knowledge (Samyak Jnina).
Conviction, from wavering (Chala), impurity (Mala), and non-steadfastness (Agarha) alone (is) right belief. Correct understanding (Adhigama) of what principles are worth renouncing and what are worth realising, (is) right knowledge.
The external causes of right belief are the Jain scriptures and the persons who know them; while the destruction, etc., of right-belief-deluding Karma are said to be the internal causes.
Listen, (just as) Right Belief and Right knowledge are the causes of) liberation, (so) is Right Conduct. Therefore I shall describe Right Conduct from (both) the real and the practical points of view.
Right conduct from the practical point of view, is to practise austerities from the practical stand-point, while Right Conduct from the real point of view is to observe austerities from the real stand-point.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
रत्नत्रयस्वरूपाख्यानमेतत् ।

भेदोपचाररत्नत्रयमपि तावद् विपरीताभिनिवेशविवर्जितश्रद्धानरूपं भगवतां सिद्धि-परंपराहेतुभूतानां पंचपरमेष्ठिनां चलमलिनागाढविवर्जितसमुपजनितनिश्चलभक्ति युक्त त्वमेव । विपरीते हरिहिरण्यगर्भादिप्रणीते पदार्थसार्थे ह्यभिनिवेशाभाव इत्यर्थः । संज्ञानमपि चसंशयविमोहविभ्रमविवर्जितमेव । तत्र संशयः तावत् जिनो वा शिवो वा देव इति । विमोहःशाक्यादिप्रोक्ते वस्तुनि निश्चयः । विभ्रमो ह्यज्ञानत्वमेव । पापक्रियानिवृत्तिपरिणामश्चारित्रम् । इति भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतिः । तत्र जिनप्रणीतहेयोपादेयतत्त्वपरिच्छित्तिरेव सम्यग्ज्ञानम् ।अस्य सम्यक्त्वपरिणामस्य बाह्यसहकारिकारणं वीतरागसर्वज्ञमुखकमलविनिर्गतसमस्तवस्तु-प्रतिपादनसमर्थद्रव्यश्रुतमेव तत्त्वज्ञानमिति । ये मुमुक्षवः तेऽप्युपचारतः पदार्थनिर्णयहेतुत्वात्अंतरंगहेतव इत्युक्ताः दर्शनमोहनीयकर्मक्षयप्रभृतेः सकाशादिति । अभेदानुपचाररत्नत्रय-परिणतेर्जीवस्य टंकोत्कीर्णज्ञायकैकस्वभावनिजपरमतत्त्वश्रद्धानेन, तत्परिच्छित्तिमात्रांतर्मुखपरम-बोधेन, तद्रूपाविचलस्थितिरूपसहजचारित्रेण अभूतपूर्वः सिद्धपर्यायो भवति । यः परमजिन-योगीश्वरः प्रथमं पापक्रियानिवृत्तिरूपव्यवहारनयचारित्रे तिष्ठति, तस्य खलु व्यवहारनय-गोचरतपश्चरणं भवति । सहजनिश्चयनयात्मकपरमस्वभावात्मकपरमात्मनि प्रतपनं तपः । स्वस्वरूपाविचलस्थितिरूपं सहजनिश्चयचारित्रम् अनेन तपसा भवतीति ।

तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ -
(कलश--अनुष्टुभ्)
दर्शनं निश्चयः पुंसि बोधस्तद्बोध इष्यते ।
स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगः शिवाश्रयः ।॥

तथा च -
(कलश--मालिनी)
जयति सहजबोधस्ताद्रशी द्रष्टिरेषा
चरणमपि विशुद्धं तद्विधं चैव नित्यम् ।
अघकुलमलपंकानीकनिर्मुक्त मूर्तिः
सहजपरमतत्त्वे संस्थिता चेतना च ॥७५॥

इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रह श्रीपद्मप्रभमलधारिदेव विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ शुद्धभावाधिकारः तृतीयः श्रुतस्कन्धः ॥


यह, रत्नत्रय के स्वरूप का कथन है ।

प्रथम, भेदोपचार-रत्नत्रय इस प्रकार है :-
  • विपरीत अभिनिवेश रहित श्रद्धानरूप ऐसा जो सिद्धि के परम्परा हेतुभूत भगवन्त पंचपरमेष्ठी के प्रति उत्पन्न हुआ चलता-मलिनता-अगाढ़ता रहित निश्चल भक्ति-युक्तपना वही सम्यक्त्व है । विष्णु-ब्रह्मादि कथित विपरीत पदार्थ-समूह के प्रति अभिनिवेश का अभाव ही सम्यक्त्व है - ऐसा अर्थ है ।
  • संशय, विमोह और विभ्रम रहित (ज्ञान) ही सम्यग्ज्ञान है । वहाँ,
    • जिन देव होंगे या शिव देव होंगे (ऐसा शंका रूपभाव) वह संशय है;
    • शाक्यादि कथित वस्तु में निश्चय (बुद्धादि कथित पदार्थ का निर्णय) वह विमोह है;
    • अज्ञानपना (वस्तु क्या है तत्सम्बन्धी अजानपना) ही विभ्रम है ।
  • पापक्रिया से निवृत्तिरूप परिणाम वह चारित्र है ।
इसप्रकार भेदोपचार-रत्नत्रय परिणति है । उसमें, जिन-प्रणीत हेय-उपादेय तत्त्वों का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान है । इस सम्यक्त्व परिणाम का बाह्य सहकारी कारण वीतराग-सर्वज्ञ के मुख-कमल से निकला हुआ समस्त वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ ऐसा द्रव्य-श्रुतरूप तत्त्वज्ञान ही है । जो मुमुक्षु हैं उन्हें भी उपचार से पदार्थ-निर्णय के हेतुपने के कारण (सम्यक्त्व परिणाम के) अन्तरङ्ग हेतु कहे हैं, क्योंकि उन्हें दर्शन-मोहनीय कर्म का क्षयादिक है । अभेद-अनुपचार-रत्नत्रय परिणति वाले जीव को, टंकोत्कीर्ण ज्ञायक जिसका एक स्वभाव है ऐसे निज परम तत्त्व की
  • श्रद्धा द्वारा,
  • तद्ज्ञानमात्र (उस निज परम तत्त्व के ज्ञान-मात्र स्वरूप) ऐसे अंतर्मुख परमबोध द्वारा और
  • उस-रूप से (निज परम तत्त्वरूप से) अविचल रूप से स्थित होनेरूप सहजचारित्र
द्वारा अभूतपूर्व सिद्ध-पर्याय होती है । जो परम-जिनयोगीश्वर पहले पाप-क्रिया से निवृत्तिरूप व्यवहारनय के चारित्र में होते हैं, उन्हें वास्तव में व्यवहारनय गोचर तपश्चरण होता है । सहज निश्चयनयात्मक परम-स्वभाव-स्वरूप परमात्मा में प्रतपन सो तप है; निज स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज निश्चय चारित्र इस तप से होता है । इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यदेवकृत पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका नामक शास्त्र में एकत्वसप्तति नाम के अधिकार में १४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
आत्मबोध ही बोध है, निश्चय दर्शन जान ।
आत्मस्थिति चारित्र है युति शिवमग पहचान ॥१७॥
आत्मा का निश्चय वह दर्शन है, आत्मा का बोध वह ज्ञान है,आत्मा में ही स्थिति वह चारित्र है; ऐसा योग (अर्थात् इन तीनों की एकता) शिव-पद का कारण है ।

और :-

(कलश--हरिगीत)
जयवंत है सद्बोध अर सद्दृष्टि भी जयवंत है ।
अर चरण भी सुविशुद्ध जो वह भी सदा जयवंत है ॥
अर पापपंकविहीन सहजानन्द आतमतत्त्व में ।
ही जो रहे, वह चेतना भी तो सदा जयवंत है ॥७५॥
सहज ज्ञान सदा जयवन्त है, वैसी (सहज) यह दृष्टि सदा जयवन्त है, वैसा ही (सहज) विशुद्ध चारित्र भी सदा जयवन्त है; पाप-समूहरूपी मल की अथवा कीचड़ की पंक्ति से रहित जिसका स्वरूप है ऐसी सहज परम-तत्त्व में संस्थित चेतना भी सदा जयवन्त है ।७५।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (अर्थात् श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) शुद्धभाव अधिकार नाम का तीसरा श्रुतस्कंध समाप्त हुआ ।