पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथेदानीं व्यवहारचारित्राधिकार उच्यते । अहिंसाव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । कुलविकल्पो योनिविकल्पश्च जीवमार्गणास्थानविकल्पाश्च प्रागेव प्रतिपादिताः । अत्रपुनरुक्ति दोषभयान्न प्रतिपादिताः । तत्रैव तेषां भेदान् बुद्ध्वा तद्रक्षापरिणतिरेव भवत्यहिंसा । तेषां मृतिर्भवतु वा न वा, प्रयत्नपरिणाममन्तरेण सावद्यपरिहारो न भवति । अत एवप्रयत्नपरे हिंसापरिणतेरभावादहिंसाव्रतं भवतीति । तथा चोक्तं श्रीसमन्तभद्रस्वामिभिः- (कलश--शिखरिणी) अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्राश्रमविधौ । ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) त्रसहतिपरिणामध्वांतविध्वंसहेतुः सकलभुवनजीवग्रामसौख्यप्रदो यः । स जयति जिनधर्मः स्थावरैकेन्द्रियाणां विविधवधविदूरश्चारुशर्माब्धिपूरः ॥७६॥ अब व्यवहारचारित्र अधिकार कहा जाता है । यह, अहिंसाव्रत के स्वरूप का कथन है । कुलभेद, योनिभेद, जीवस्थान के भेद और मार्गणास्थान के भेद पहले ही (४२वीं गाथा की टीका में ही) प्रतिपादित किये गये हैं; यहाँ पुनरुक्ति-दोष के भय से प्रतिपादित नहीं किये हैं । वहाँ कहे हुए उनके भेदों को जानकर उनकी रक्षारूप परिणति ही अहिंसा है । उनका मरण हो या न हो, प्रयत्नरूप परिणाम बिना सावद्यपरिहार (दोष का त्याग) नहीं होता । इसीलिये, प्रयत्न परायण को हिंसा-परिणति का अभाव होने से अहिंसाव्रत होता है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री समंतभद्रस्वामी ने (बृहत्स्वयंभूस्तोत्र में श्री नमिनाथ भगवान की स्तुति करते हुए ११९वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- अहिंसा परमब्रह्म है सारा जगत यह जानता ।
जगत में विदित है कि जीवों की अहिंसा परम ब्रह्म है । जिस आश्रम की विधि में लेश भी आरंभ है वहाँ वह अहिंसा नहीं होती । इसलिये उसकी सिद्धिके हेतु, परम करुणावन्त ऐसे आप श्री ने दोनों ग्रंथ को छोड़ दिया (द्रव्य तथा भाव दोनों प्रकार के परिग्रह को छोड़कर निर्ग्रन्थपना अंगीकार किया), विकृत वेश तथा परिग्रह में रत न हुए ।अर गृहस्थ आश्रम में सदा आरंभ होता नियम से ॥ बस इसलिए नमिदेव ने दो विध परिग्रह त्यागकर । छोड़ विकृत वेश सब निर्ग्रन्थपन धारण किया ॥१८॥ और - (कलश--हरिगीत)
त्रसघात के परिणामरूप अंधकार के नाश का जो हेतु है, सकल-लोक के जीव-समूह को जो सुखप्रद है, स्थावर एकेन्द्रिय जीवों के विविध वध से जो बहुत दूर है और सुन्दर सुख-सागर का जो पूर है, वह जिनधर्म जयवन्त वर्तता है ।
त्रसघात के परिणाम तम के नाश का जो हेतु है । और थावर प्राणियों के विविध वध से दूर है ॥ आनन्द सागरपूर सुखप्रद प्राणियों को लोक के । वह जैनदर्शन जगत में जयवंत वर्ते नित्य ही ॥७६॥ |