पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
सत्यव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् । अत्र मृषापरिणामः सत्यप्रतिपक्षः, स च रागेण वा द्वेषेण वा मोहेन वा जायते ।सदा यः साधुः आसन्नभव्यजीवः तं परिणामं परित्यजति तस्य द्वितीयव्रतं भवति इति । (कलश--शालिनी) वक्ति व्यक्तं सत्यमुच्चैर्जनो यः स्वर्गस्त्रीणां भूरिभोगैकभाक् स्यात् । अस्मिन् पूज्यः सर्वदा सर्वसद्भिः सत्यात्सत्यं चान्यदस्ति व्रतं किम् ॥७७॥ यह, सत्यव्रत के स्वरूप का कथन है । यहाँ (ऐसा कहा है कि), सत्य का प्रतिपक्ष (सत्य से विरुद्ध परिणाम) वह मृषा-परिणाम हैं; वे (असत्य बोलने के परिणाम) राग से, द्वेष से अथवा मोह से होते हैं; जो साधु / आसन्न-भव्य जीव, उन परिणामों का परित्याग करता है (समस्त प्रकार से छोड़ता है ), उसे दूसरा व्रत होता है । (कलश--हरिगीत)
जो पुरुष अति स्पष्टरूप से सत्य बोलता है, वह स्वर्ग की स्त्रियों के अनेक भोगों का एक भागी होता है (वह पर-लोक में अनन्यरूप से देवांगनाओं के बहुत-से भोग प्राप्त करता है) और इस लोक में सर्वदा सर्व सत्पुरुषों का पूज्य बनता है । वास्तवमें क्या सत्य से अन्य कोई (बढ़कर) व्रत है ?
जो पुरुष बोलें सत्य अति-स्पष्ट वे सब स्वर्ग की । देवांगनाओं के सुखों को भोगते भरपूर हैं ॥ इस लोक में भी सज्जनों से पूज्य होते वे पुरुष । इसलिए इस सत्य से बढकर न कोई व्रत कहा ॥७७॥ |