पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् -- वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं द्रष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति । (कलश--आर्या) आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह । स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ॥७८॥ यह, तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है । जिसके चौतरफ बाड़ हो वह ग्राम (गाँव) है; जो चार द्वारों से सुशोभित हो वह नगर है; जो मनुष्य के संचार रहित, वनस्पति-समूह, बेलों और वृक्षों के झुंड आदि से खचाखच भरा हो वह अरण्य है । ऐसे ग्राम, नगर या अरण्य में अन्य से छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई पर-वस्तु को देखकर उसके स्वीकार-परिणाम का (उसे अपनी बनाने / ग्रहण करने के परिणाम का) जो परित्याग करता है, उसे वास्तव में तीसरा व्रत होता है । (कलश--हरिगीत)
यह उग्र अचौर्य इस लोक में रत्नों के संचय को आकर्षित करता है और (परलोक में) स्वर्ग की स्त्रियों के सुख का कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का कारण है ।
अचौर्यव्रत इस लोक में धन सम्पदा का हेतु है । परलोक में देवांगनाओं के सुखों का हेतु है ॥ शुद्ध एवं सहज निर्मल परिणति के संग से । परम्परा से मुक्तिवधु का हेतु भी कहते इसे ॥७८॥ |