+ अचौर्य-व्रत -
गामे वा णयरे वाऽरण्णे वा पेच्छिऊण परमत्थं ।
जो मुयदि गहणभावं तिदियवदं होदि तस्सेव ॥58॥
ग्रामे वा नगरे वाऽरण्ये वा प्रेक्षयित्वा परमर्थम् ।
यो मुंचति ग्रहणभावं तृतीयव्रतं भवति तस्यैव ॥५८॥
ग्राम में वन में नगर में देखकर परवस्तु जो ।
उसके ग्रहण का भाव त्यागे तीसरा व्रत उसे हो ॥५८॥
अन्वयार्थ : [ग्रामे वा] ग्राम में, [नगरे वा] नगर में [अरण्ये वा] या वन में [परम् अर्थम्] परायी वस्तु को [प्रेक्षयित्वा] देखकर [यः] जो (साधु) [ग्रहणभावं] उसे ग्रहण करने के भाव को [मुंचति] छोड़ता है, [तस्य एव] उसी को [तृतीयव्रतं] तीसरा व्रत [भवति] है ।
Meaning : He, who renounces the thought-activity of picking up articles belonging to another, lying in a villaga, a town or a forest, (is said) to observe the third vow (non-stealing), Achaurya

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
तृतीयव्रतस्वरूपाख्यानमेतत् --

वृत्यावृत्तो ग्रामः तस्मिन् वा चतुर्भिर्गोपुरैर्भासुरं नगरं तस्मिन् वा मनुष्यसंचारशून्यं वनस्पतिजातवल्लीगुल्मप्रभृतिभिः परिपूर्णमरण्यं तस्मिन् वा परेण विसृष्टं निहितं पतितं वा विस्मृतं वा परद्रव्यं द्रष्ट्वा स्वीकारपरिणामं यः परित्यजति, तस्य हि तृतीयव्रतं भवति इति ।

(कलश--आर्या)
आकर्षति रत्नानां संचयमुच्चैरचौर्य्यमेतदिह ।
स्वर्गस्त्रीसुखमूलं क्रमेण मुक्त्यंगनायाश्च ॥७८॥



यह, तीसरे व्रत के स्वरूप का कथन है ।

जिसके चौतरफ बाड़ हो वह ग्राम (गाँव) है; जो चार द्वारों से सुशोभित हो वह नगर है; जो मनुष्य के संचार रहित, वनस्पति-समूह, बेलों और वृक्षों के झुंड आदि से खचाखच भरा हो वह अरण्य है । ऐसे ग्राम, नगर या अरण्य में अन्य से छोड़ी हुई, रखी हुई, गिरी हुई अथवा भूली हुई पर-वस्तु को देखकर उसके स्वीकार-परिणाम का (उसे अपनी बनाने / ग्रहण करने के परिणाम का) जो परित्याग करता है, उसे वास्तव में तीसरा व्रत होता है ।

(कलश--हरिगीत)
अचौर्यव्रत इस लोक में धन सम्पदा का हेतु है ।
परलोक में देवांगनाओं के सुखों का हेतु है ॥
शुद्ध एवं सहज निर्मल परिणति के संग से ।
परम्परा से मुक्तिवधु का हेतु भी कहते इसे ॥७८॥
यह उग्र अचौर्य इस लोक में रत्नों के संचय को आकर्षित करता है और (परलोक में) स्वर्ग की स्त्रियों के सुख का कारण है तथा क्रमशः मुक्तिरूपी स्त्री के सुख का कारण है ।