+ ब्रह्मचर्य-व्रत -
दट्ठूण इत्थिरूवं वांछाभावं णियत्तदे तासु ।
मेहुणसण्णविवज्जियपरिणामो अहव तुरियवदं ॥59॥
द्रष्ट्वा स्त्रीरूपं वांच्छाभावं निवर्तते तासु ।
मैथुनसंज्ञाविवर्जितपरिणामोऽथवा तुरीयव्रतम् ॥५९॥
देख रमणी रूप वांछा भाव से निर्वृत्त हो ।
या रहित मैथुनभाव से है वही चौथा व्रत अहो ॥५९॥
अन्वयार्थ : [स्त्रीरूपं दृष्टवा] स्त्रियों का रूप देखकर [तासु] उनके प्रति [वांच्छाभावं निवर्तते] वांछाभाव की निवृत्ति वह [अथवा] अथवा [मैथुनसंज्ञा-विवर्जित परिणामः] मैथुन-संज्ञा रहित जो परिणाम वह [तुरीयव्रतम्] चौथा व्रत है ।
Meaning : He, who having seen the beauty of a woman, is not moved by a desire for her ; or whose thought-activity is free from sex-animate feeling (Maithuna Sanjna), (is said to observe) the fourth vow (chastity), Brahmacharya

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् --

कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि-त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण-शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति ।
(कलश--मालिनी)
भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूतिं
स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम् ।
सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय
व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ॥७९॥



यह, चौथे व्रत के स्वरूप का कथन है ।

सुन्दर कामिनियों के मनोहर अङ्ग के निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलता (चित्तवांछा) परित्याग से, अथवा पुरुष-वेदोदय नाम का जो नोकषाय का तीव्र उदय उसके कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुन-संज्ञा के परित्याग-स्वरूप शुभ परिणाम से, ब्रह्मचर्य-व्रत होता है ।



(कलश--हरिगीत)
कामी पुरुष यदि तू सदा ही कामनी की देह के ।
सौन्दर्य के संबंध में ही सोचता है निरन्तर ॥
तेरे लिये मेरे वचन किस काम के किस हेतु से ।
निज रूप को तज मोह में तू फंस रहा है निरन्तर ॥७९॥
कामिनियों की जो शरीर-विभूति उस विभूति का, हे कामी पुरुष ! यदि तू मन में स्मरण करता है, तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्त्व को - निज स्वरूप को - छोड़कर तू किस कारण विपुल मोह को प्राप्त हो रहा है !