पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
चतुर्थव्रतस्वरूपकथनमिदम् -- कमनीयकामिनीनां तन्मनोहराङ्गनिरीक्षणद्वारेण समुपजनितकौतूहलचित्तवांच्छापरि-त्यागेन, अथवा पुंवेदोदयाभिधाननोकषायतीव्रोदयेन संजातमैथुनसंज्ञापरित्यागलक्षण-शुभपरिणामेन च ब्रह्मचर्यव्रतं भवति इति । (कलश--मालिनी) भवति तनुविभूतिः कामिनीनां विभूतिं स्मरसि मनसि कामिंस्त्वं तदा मद्वचः किम् । सहजपरमतत्त्वं स्वस्वरूपं विहाय व्रजसि विपुलमोहं हेतुना केन चित्रम् ॥७९॥ यह, चौथे व्रत के स्वरूप का कथन है । सुन्दर कामिनियों के मनोहर अङ्ग के निरीक्षण द्वारा उत्पन्न होनेवाली कुतूहलता (चित्तवांछा) परित्याग से, अथवा पुरुष-वेदोदय नाम का जो नोकषाय का तीव्र उदय उसके कारण उत्पन्न होनेवाली मैथुन-संज्ञा के परित्याग-स्वरूप शुभ परिणाम से, ब्रह्मचर्य-व्रत होता है । (कलश--हरिगीत)
कामिनियों की जो शरीर-विभूति उस विभूति का, हे कामी पुरुष ! यदि तू मन में स्मरण करता है, तो मेरे वचन से तुझे क्या लाभ होगा ? अहो ! आश्चर्य होता है कि सहज परमतत्त्व को - निज स्वरूप को - छोड़कर तू किस कारण विपुल मोह को प्राप्त हो रहा है !
कामी पुरुष यदि तू सदा ही कामनी की देह के । सौन्दर्य के संबंध में ही सोचता है निरन्तर ॥ तेरे लिये मेरे वचन किस काम के किस हेतु से । निज रूप को तज मोह में तू फंस रहा है निरन्तर ॥७९॥ |