+ परिग्रह-त्याग व्रत -
सव्वेसिं गंथाणं चागो णिरवेक्खभावणापुव्वं ।
पंचमवदमिदि भणिदं चारित्तभरं वहंतस्स ॥60॥
सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागो निरपेक्षभावनापूर्वम् ।
पंचमव्रतमिति भणितं चारित्रभरं वहतः ॥६०॥
निरपेक्ष भावों पूर्वक सब परिग्रहों का त्याग ही ।
चारित्रधारी मुनिवरों का पाँचवाँ व्रत कहा है ॥६०॥
अन्वयार्थ : [निरपेक्षभावनापूर्वम् ] निरपेक्ष भावना पूर्वक (जिस भावना में पर की अपेक्षा नहीं है ऐसी शुद्ध निरालम्बन भावना सहित) [सर्वेषां ग्रन्थानां त्यागः ] सर्व परिग्रहों का त्याग वह, [चारित्रभरं वहतः ] चारित्रभर वहन करनेवाले को [पंचमव्रतम् इति भणितम् ] पाँचवाँ व्रत कहा है ।
Meaning : The carrier of the load of (right) conduct, i.e., a saint, who having first formed the idea of being unconcerned with all worldly attachments, renounces them is said to observe the fifth vow of possessionlessness, (Parigraha Tyaga.)

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि पंचमव्रतस्वरूपमुक्तम् --
सकलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिजकारणपरमात्मस्वरूपावस्थितानां परमसंयमिनां परम-जिनयोगीश्वराणां सदैव निश्चयव्यवहारात्मकचारुचारित्रभरं वहतां, बाह्याभ्यन्तरचतुर्विंशति-परिग्रहपरित्याग एव परंपरया पंचमगतिहेतुभूतं पंचमव्रतमिति ।

तथा चोक्तं समयसारे -
मज्झं परिग्गहो जदि तदो अहमजीवदं तु गच्छेज्ज ।
णादेव अहं जम्हा तम्हा ण परिग्गहो मज्झ ॥

तथा हि -
(कलश--हरिणी)
त्यजतु भवभीरुत्वाद्भव्यः परिग्रहविग्रहं
निरुपमसुखावासप्राप्त्यै करोतु निजात्मनि ।
स्थितिमविचलां शर्माकारां जगज्जनदुर्लभां
न च भवति महच्चित्रं चित्रं सतामसतामिदम् ॥८०॥



यहाँ (इस गाथा में) पाँचवें व्रत का स्वरूप कहा गया है ।

सकल परिग्रह के परित्याग-स्वरूप निज कारण-परमात्मा के स्वरूप में अवस्थित (स्थिर हुए) परम-संयमियों को - परम जिनयोगीश्वरों को - सदैव निश्चय-व्यवहारात्मक सुन्दर चारित्रभर वहन करनेवालों को, बाह्य-अभ्यंतर चौबीस प्रकार के परिग्रह का परित्याग ही परम्परा से पंचमगति के हेतुभूत ऐसा पाँचवाँ व्रत है । इसीप्रकार (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत) श्री समयसार में (२०८वीं गाथा द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
यदि परिग्रह मेरा बने तो मैं अजीव बनूँ अरे ।
पर मैं तो ज्ञायकभाव हूँ इसलिए पर मेरे नहीं ॥स.सा.२०८॥
यदि परद्रव्य - परिग्रह मेरा हो तो मैं अजीवत्व को प्राप्त होऊँ । मैं तो ज्ञाता ही हूँ इसलिये (पर-द्रव्यरूप) परिग्रह मेरा नहीं है ।

और

(कलश--हरिगीत)
हे भव्यजन ! भव-भीरुता बस परिग्रह को छोड़ दो ।
परमार्थ सुख के लिए निज में अचलता धारण करो ॥
जो जगतजन को महादुर्लभ किन्तु सज्जन जनों को ।
आश्चर्यकारी है नहीं आश्चर्य दुर्जन जनों को ॥८०॥
भव्य जीव भवभीरुता के कारण परिग्रह-विस्तार को छोड़ो और निरुपम-सुख के आवास की प्राप्ति हेतु निज-आत्मा में अविचल, सुखाकार (सुखमयी) तथा जगत-जनों को दुर्लभ ऐसी स्थिति (स्थिरता) करो । और यह सत्पुरुषों को कोई महा आश्चर्य की बात नहीं है, असत्पुरुषों को आश्चर्य की बात है ।