पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रेर्यासमितिस्वरूपमुक्तम् -- यः परमसंयमी गुरुदेवयात्रादिप्रशस्तप्रयोजनमुद्दिश्यैकयुगप्रमाणं मार्गम् अवलोकयन्स्थावरजंगमप्राणिपरिरक्षार्थं दिवैव गच्छति, तस्य खलु परमश्रमणस्येर्यासमितिर्भवति । व्यवहार-समितिस्वरूपमुक्तम् । इदानीं निश्चयसमितिस्वरूपमुच्यते । अभेदानुपचाररत्नत्रयमार्गेण परम-धर्मिणमात्मानं सम्यग् इता परिणतिः समितिः । अथवा निजपरमतत्त्वनिरतसहजपरमबोधादि-परमधर्माणां संहतिः समितिः । इति निश्चयव्यवहारसमितिभेदं बुद्ध्वा तत्र परमनिश्चय-समितिमुपयातु भव्य इति । (कलश--मन्दाक्रांता) इत्थं बुद्ध्वा परमसमितिं मुक्ति कान्तासखीं यो मुक्त्वा संगं भवभयकरं हेमरामात्मकं च । स्थित्वाऽपूर्वे सहजविलसच्चिच्चमत्कारमात्रे भेदाभावे समयति च यः सर्वदा मुक्त एव ॥८१॥ (कलश--मालिनी) जयति समितिरेषा शीलमूलं मुनीनां त्रसहतिपरिदूरा स्थावरणां हतेर्वा । भवदवपरितापक्लेशजीमूतमाला सकलसुकृतसीत्यानीकसन्तोषदायी ॥८२॥ (कलश--मालिनी) नियतमिह जनानां जन्म जन्मार्णवेऽस्मिन् समितिविरहितानां कामरोगातुराणाम् । मुनिप कुरु ततस्त्वं त्वन्मनोगेहमध्ये ह्यपवरकममुष्याश्चारुयोषित्सुमुक्ते : ॥८३॥ (कलश--आर्या) निश्चयरूपां समितिं सूते यदि मुक्ति भाग्भवेन्मोक्षः । बत न च लभतेऽपायात् संसारमहार्णवे भ्रमति ॥८४॥ यहाँ (इस गाथा में) ईर्या-समिति का स्वरूप कहा है । जो परम-संयमी गुरुयात्रा (गुरु के पास जाना), देव-यात्रा (देव के पास जाना) आदि प्रशस्त प्रयोजन का उद्देश रखकर एक धुरा (चार हाथ) जितना मार्ग देखते-देखते स्थावर तथा जङ्गम प्राणियों की परिरक्षा (समस्त प्रकार से रक्षा) के हेतु दिन में ही चलता है, उस परम-श्रमण को ईर्या-समिति होती है । (इसप्रकार) व्यवहार-समिति का स्वरूप कहा गया । अब निश्चय-समिति का स्वरूप कहा जाता है : अभेद-अनुपचार-रत्नत्रयरूपी मार्ग पर परम-धर्मी ऐसे (अपने) आत्मा के प्रति सम्यक् 'इति' (गति) अर्थात् परिणति वह समिति है; अथवा, निज परम-तत्त्व में लीन सहज परम-ज्ञानादिक परम-धर्मों की संहति (मिलन, संगठन) वह समिति है । इसप्रकार निश्चय और व्यवहाररूप समिति-भेद जानकर उनमें (उन दो में से) परम निश्चय-समिति को भव्य जीव प्राप्त करो । (कलश--हरिगीत)
इस प्रकार मुक्तिकान्ता की (मुक्ति-सुन्दरी की) सखी परम-समिति को जानकर जो जीव भव-भय के करनेवाले कंचन-कामिनी के संग को छोड़कर, अपूर्व, सहज - विलसते (स्वभाव से प्रकाशते), अभेद चैतन्य-चमत्कारमात्र में स्थित रहकर (उसमें) सम्यक् 'इति' (गति) करता है अर्थात् सम्यक्-रूप से परिणमित होता है वह सर्वदा मुक्त ही है ।मुक्तिकान्ता की सखी जो समिति उसको जानकर । जो संत कंचन-कामिनी के संग को परित्याग कर ॥ चैतन्य में ही रमण करते नित्य निर्मल भाव से । विलग जग से निजविहारी मुक्त ही हैं संत वे ॥८१॥ (कलश--हरिगीत)
जो (समिति) मुनियों को शील का (चारित्र का) मूल है, जो त्रस जीवों के घात से तथा स्थावर जीवों के घात से समस्त प्रकार से दूर है, जो भव-दावानल के परितापरूपी क्लेश को शान्त करनेवाली तथा समस्त सुकृतरूपी धान्य की राशि को (पोषण देकर) सन्तोष देनेवाली मेघमाला है, ऐसी यह समिति जयवन्त है ।जयवंत है यह समिति जो त्रस और थावर घात से । संसारदावानल भयंकर क्लेश से अतिदूर है ॥ मुनिजनों के शील की है मूल धोती पाप को । यह मेघमाला सींचती जो पुण्यरूप अनाज को ॥८२॥ (कलश--हरिगीत)
यहाँ (विश्व में) यह निश्चित है कि इस जन्मार्णव में (भवसागर में) समिति-रहित काम-रोगातुर (इच्छारूपी रोग से पीड़ित) जनों का जन्म होता है । इसलिये हे मुनि ! तू अपने मनरूपी घर में इस सुमुक्तिरूपी सुन्दर स्त्री के लिये निवासगृह (कमरा) रख (अर्थात् तू मुक्ति का चिंतवन कर) ।समिति विरहित काम रोगी जनों का दुर्भाग्य यह । संसार-सागर में निरंतर जन्मते-मरते रहें ॥ हे मुनिजनो ! तुम हृदयघर में सावधानी पूर्वक । जगह समुचित सदा रखना मुक्ति कन्या के लिए ॥८३॥ (कलश--दोहा)
यदि जीव निश्चयरूप समिति को उत्पन्न करे, तो वह मुक्ति को प्राप्त करता है / मोक्षरूप होता है । परन्तु समिति के नाश से, अरे रे ! वह मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाता, किन्तु संसाररूपी महा-सागर में भटकता है ।
जो पाले निश्चय समिति, निश्चित मुक्ति जाँहि । समिति भ्रष्ट तो नियम से भटकें भव के माँहि ॥८४॥ |