+ भाषा-समिति -
पेसुण्णहासकक्कसपरणिंदप्पप्पसंसियं वयणं ।
परिचत्ता सपरहिदं भासासमिदी वदंतस्स ॥62॥
पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम् ।
परित्यज्य स्वपरहितं भाषासमितिर्वदतः ॥६२॥
परिहास चुगली और निन्दा तथा कर्कश बोलना ।
यह त्यागना ही समिति दूजी स्व-पर हितकर बोलना ॥६२॥
अन्वयार्थ : [पैशून्यहास्यकर्कशपरनिन्दात्मप्रशंसितं वचनम्] पैशून्य (चुगली), हास्य, कर्कश भाषा, परनिन्दा और आत्म-प्रशंसारूप वचन का [परित्यज्य] परित्याग कर [स्वपरहितं वदतः] जो स्व-पर हितरूप वचन बोलता है, उसे [भाषासमितिः] भाषा-समिति होती है ।
Meaning : He, who having renounced backbiting, ridiculing, talking ill of others, self-praising and harsh words, speaks what is good for himself as well as for others (is said) to have carefulness in speech (Bhasha Samiti).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्त म् ।कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वामहद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् । क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्यत्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुख-विकारगतं हास्यकर्म । कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः ।परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा । स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा । एतत्सर्वम-प्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति ।तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः —
(मालिनी)
समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः
स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः ।
स्वपरसफ लजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः
कथमिह न विमुक्ते र्भाजनं ते विमुक्ताः ॥

तथा च -
(अनुष्टुभ्)
परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम् ।
अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जल्पैश्च किं पुनः ॥८५॥



यहाँ भाषा-समिति का स्वरूप कहा है ।
  • चुगलखोर मनुष्य के मुँह से निकले हुए और राजा के कान तक पहुँचे हुए, किसी एक पुरुष, किसी एक कुटुम्ब अथवा किसी एक ग्राम को महा विपत्ति के कारणभूत ऐसे वचन, वह पैशून्य है ।
  • कहीं कभी किञ्चित् परजनों के विकृत रूप को देखकर अथवा सुनकर हास्य नामक नोकषाय से उत्पन्न होनेवाला, किंचित् शुभ के साथ मिश्रित होने पर भी अशुभ कर्म का कारण, पुरुष के मुंह के विकार के साथ सम्बन्धवाला, वह हास्य-कर्म है ।
  • कर्ण छिद्र के निकट पहुँचने मात्र से जो दूसरों को अप्रीति उत्पन्न करते हैं वे कर्कश वचन हैं ।
  • दूसरे के विद्यमान / अविद्यमान दूषण पूर्वक के वचन (अर्थात् पर के सच्चे तथा झूठे दोष कहनेवाले वचन) वह पर-निन्दा है ।
  • अपने विद्यमान / अविद्यमान गुणों की स्तुति वह आत्म-प्रशंसा है ।
इन सब अप्रशस्त वचनों के परित्याग पूर्वक स्व तथा पर को शुभ और शुद्ध परिणति के कारणभूत वचन वह भाषा-समिति है । इसीप्रकार (आचार्यवर) श्रीगुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २२६ वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--वीर)
जान लिये हैं सभी तत्त्व अर दूर सर्व सावद्यों से ।
अपने हित में चित्त लगाकर सब प्रकार से शान्त हुए ॥
जिनकी वाणी स्वपर हितकरी संकल्पों से मुक्त हुए ।
मुक्ति भाजन क्यों न हो जब सब प्रकार से मुक्त हुए ॥आ.-२२६॥
जिन्होंने सब (वस्तु-स्वरूप) जान लिया है, जो सर्व-सावद्य से दूर हैं, जिन्होंने स्वहित में चित्त को स्थापित किया है, जिनके सर्व प्रचार (व्यवस्था) शान्त हुआ है, जिनकी भाषा स्वपर को सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प-रहित हैं, वे विमुक्त पुरुष इस लोक में विमुक्ति का भाजन क्यों नहीं होंगे ?

और -

(कलश--दोहा)
आत्मनिरत मुनिवरों के अन्तर्जल्प विरक्ति ।
तब फिर क्यों होगी अरे बहिर्जल्प अनुरक्ति ॥८५॥
पर-ब्रह्म के अनुष्ठानमें निरत (परमात्मा के आचरण में लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषों को / मुनिजनों को अन्तर्जल्प से भी बस होओ, बहिर्जल्प की (भाषा बोलने की) तो बात ही क्या ।