पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र भाषासमितिस्वरूपमुक्त म् ।कर्णेजपमुखविनिर्गतं नृपतिकर्णाभ्यर्णगतं चैकपुरुषस्य एककुटुम्बस्य एकग्रामस्य वामहद्विपत्कारणं वचः पैशून्यम् । क्वचित् कदाचित् किंचित् परजनविकाररूपमवलोक्यत्वाकर्ण्य च हास्याभिधाननोकषायसमुपजनितम् ईषच्छुभमिश्रितमप्यशुभकर्मकारणं पुरुषमुख-विकारगतं हास्यकर्म । कर्णशष्कुलीविवराभ्यर्णगोचरमात्रेण परेषामप्रीतिजननं हि कर्कशवचः ।परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परनिन्दा । स्वस्य भूताभूतगुणस्तुतिरात्मप्रशंसा । एतत्सर्वम-प्रशस्तवचः परित्यज्य स्वस्य च परस्य च शुभशुद्धपरिणतिकारणं वचो भाषासमितिरिति ।तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः — (मालिनी) समधिगतसमस्ताः सर्वसावद्यदूराः स्वहितनिहितचित्ताः शांतसर्वप्रचाराः । स्वपरसफ लजल्पाः सर्वसंकल्पमुक्ताः कथमिह न विमुक्ते र्भाजनं ते विमुक्ताः ॥ तथा च - (अनुष्टुभ्) परब्रह्मण्यनुष्ठाननिरतानां मनीषिणाम् । अन्तरैरप्यलं जल्पैः बहिर्जल्पैश्च किं पुनः ॥८५॥ यहाँ भाषा-समिति का स्वरूप कहा है ।
(कलश--वीर)
जिन्होंने सब (वस्तु-स्वरूप) जान लिया है, जो सर्व-सावद्य से दूर हैं, जिन्होंने स्वहित में चित्त को स्थापित किया है, जिनके सर्व प्रचार (व्यवस्था) शान्त हुआ है, जिनकी भाषा स्वपर को सफल (हितरूप) है, जो सर्व संकल्प-रहित हैं, वे विमुक्त पुरुष इस लोक में विमुक्ति का भाजन क्यों नहीं होंगे ? जान लिये हैं सभी तत्त्व अर दूर सर्व सावद्यों से । अपने हित में चित्त लगाकर सब प्रकार से शान्त हुए ॥ जिनकी वाणी स्वपर हितकरी संकल्पों से मुक्त हुए । मुक्ति भाजन क्यों न हो जब सब प्रकार से मुक्त हुए ॥आ.-२२६॥ और - (कलश--दोहा)
पर-ब्रह्म के अनुष्ठानमें निरत (परमात्मा के आचरण में लीन) ऐसे बुद्धिमान पुरुषों को / मुनिजनों को अन्तर्जल्प से भी बस होओ, बहिर्जल्प की (भाषा बोलने की) तो बात ही क्या ।
आत्मनिरत मुनिवरों के अन्तर्जल्प विरक्ति । तब फिर क्यों होगी अरे बहिर्जल्प अनुरक्ति ॥८५॥ |