+ एषणा-समिति -
कदकारिदाणुमोदणरहिदं तह पासुगं पसत्थं च ।
दिण्णं परेण भत्तं समभुत्ती एसणासमिदी ॥63॥
कृतकारितानुमोदनरहितं तथा प्रासुकं प्रशस्तं च ।
दत्तं परेण भक्तं संभुक्ति : एषणासमितिः ॥६३॥
स्वयं करना कराना अनुमोदना से रहित जो ।
निर्दोष प्रासुक भुक्ति ही है एषणा समिति अहो ॥६३॥
अन्वयार्थ : [परेण दत्तं] पर द्वारा दिया गया, [कृतकारितानुमोदनरहितं] कृत-कारित-अनुमोदन रहित, [तथा प्रासुकं] प्रासुक [प्रशस्तंच] और प्रशस्त [भक्तं] भोजन करनेरूप [संभुक्तिः] जो सम्यक् आहार-ग्रहण [एषणासमितिः] वह एषणा-समिति है ।
Meaning :  He, who calmly takes food, which is prepared not by himself, nor that which he made others prepare for him. self, nor that prepared by others with his approval, and which is wholesome, free from living-beings, and given by another (with devotion), is said to have carefulness in eating (Eshana Samiti).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्रैषणासमितिस्वरूपमुक्तम् । तद्यथा -

मनोवाक्कायानां प्रत्येकं कृतकारितानुमोदनैः कृत्वा नव विकल्पा भवन्ति, न तैःसंयुक्त मन्नं नवकोटिविशुद्धमित्युक्तम्; अतिप्रशस्तं मनोहरम्; हरितकायात्मकसूक्ष्मप्राणि-संचारागोचरं प्रासुकमित्यभिहितम्; प्रतिग्रहोच्चस्थानपादक्षालनार्चनप्रणामयोगशुद्धिभिक्षा-शुद्धिनामधेयैर्नवविधपुण्यैः प्रतिपत्तिं कृत्वा श्रद्धाशक्त्यलुब्धताभक्ति ज्ञानदयाक्षमाऽभिधान-सप्तगुणसमाहितेन शुद्धेन योग्याचारेणोपासकेन दत्तं भक्तं भुंजानः तिष्ठति यः परमतपोधनः तस्यैषणासमितिर्भवति । इति व्यवहारसमितिक्रमः । अथ निश्चयतो जीवस्याशनं नास्तिपरमार्थतः, षट्प्रकारमशनं व्यवहारतः संसारिणामेव भवति ।
तथा चोक्तं समयसारे (?) -
णोकम्मकम्महारो लेप्पाहारो य कवलमाहारो ।
उज्ज मणो वि य कमसो आहारो छव्विहो णेयो ॥


अशुद्धजीवानां विभावधर्मं प्रति व्यवहारनयस्योदाहरणमिदम् ।इदानीं निश्चयस्योदाहृतिरुच्यते ।
तद्यथा -
जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा ।
अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ॥


तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः-
(कलश--मालिनी)
यमनियमनितान्तः शान्तबाह्यान्तरात्मा
परिणमितसमाधिः सर्वसत्त्वानुकम्पी ।
विहितहितमिताशी क्लेशजालं समूलं
दहति निहतनिद्रो निश्चिताध्यात्मसारः ॥


तथा हि -
(कलश--शालिनी)
भुक्त्वा भक्तं भक्त हस्ताग्रदत्तं
ध्यात्वात्मानं पूर्णबोधप्रकाशम् ।
तप्त्वा चैवं सत्तपः सत्तपस्वी
प्राप्नोतीद्धां मुक्ति वारांगनां सः ॥८६॥



यहाँ एषणा-समिति का स्वरूप कहा है । वह इसप्रकार -

मन, वचन और काया में से प्रत्येक को कृत, कारित और अनुमोदना सहित गिनने पर उनके नौ भेद होते हैं; उनसे संयुक्त अन्न नव कोटिरूप से विशुद्ध नहीं है ऐसा (शास्त्र में) कहा है; अतिप्रशस्त अर्थात् मनोहर (अन्न); हरितकायमय सूक्ष्म प्राणियों के संचार को अगोचर वह प्रासुक (अन्न) - ऐसा (शास्त्र में) कहा है । *प्रतिग्रह, उच्च स्थान, पादप्रक्षालन, अर्चन, प्रणाम, योगशुद्धि (मन-वचन-काया की शुद्धि) और भिक्षा-शुद्धि - इस नव-विध पुण्य से (नवधा भक्ति से) आदर करके, श्रद्धा, शक्ति, अलुब्धता, भक्ति, ज्ञान, दया और क्षमा - इन (दाता के) सात गुणों सहित शुद्ध योग्य-आचारवाले उपासक द्वारा दिया गया (नव कोटिरूप से शुद्ध, प्रशस्त और प्रासुक) भोजन जो परम तपोधन लेते हैं, उन्हें एषणा-समिति होती है । ऐसा व्यवहार-समिति का क्रम है ।

अब निश्चय से ऐसा है कि - जीव को परमार्थ से अशन नहीं है; छह प्रकार का अशन व्यवहार से संसारियों को ही होता है । इसीप्रकार श्री समयसार में (?) कहा है कि :-

नोकर्म - आहार, कर्म - आहार, लेप - आहार, कवल - आहार, ओज - आहार और मन - आहार -- इसप्रकार आहार क्रमशः छह प्रकार का जानना । अशुद्ध जीवों के विभाव-धर्म सम्बन्ध में व्यवहारनय का यह (अवतरण की गई गाथा में) उदाहरण है ।

अब (श्री प्रवचनसारकी २२७वीं गाथा द्वारा) निश्चय का उदाहरण कहा जाता है । वह इसप्रकार :-

(हरिगीत)
अरे भिक्षा मुनिवरों की ऐषणा से रहित हो।
वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ॥प्र.सा.२२७॥
जिसका आत्मा एषणा-रहित है (अर्थात् जो अनशनस्वभावी आत्मा को जानने के कारण स्वभाव से आहार की इच्छा रहित है ) उसे वह भी तप है; (और) उसे प्राप्त करने के लिये (अनशन-स्वभावी आत्मा को परिपूर्णरूप से प्राप्त करने के लिये) प्रयत्न करनेवाले ऐसे जो श्रमण उन्हें अन्य (स्वरूप से भिन्न ऐसी) भिक्षा एषणा बिना (एषणा-दोष रहित) होती है; इसलिये वे श्रमण अनाहारी हैं ।

इसीप्रकार (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
जो सभी के प्रति दया समता समाधि के भाव से ।
नित्य पाले यम-नियम अर शान्त अन्तर बाह्य से ॥
शास्त्र के अनुसार हित-मित असन निद्रा नाश से ।
वे मुनीजन ही जला देते क्लेश के जंजाल को ॥आ.शा.२२५॥
जिसने अध्यात्म के सार का निश्चय किया है, जो अत्यन्त यम-नियम सहित है, जिसका आत्मा बाहर से और भीतर से शान्त हुआ है, जिसे समाधि परिणमित हुई है, जिसे सर्व जीवों के प्रति अनुकम्पा है, जो विहित (शास्त्राज्ञा के अनुसार) हित - मित भोजन करनेवाला है, जिसने निद्रा का नाश किया है, वह (मुनि) क्लेश-जाल को समूल जला देता है ।

और -

(कलश--हरिगीत)
भक्त के हस्ताग्र से परिशुद्ध भोजन प्राप्त कर ।
परिपूर्ण ज्ञान प्रकाशमय निज आत्मा का ध्यान धर ॥
इसतरह तप तप तपस्वी निरन्तर निज में मगन ।
मुक्तिरूपी अंगना को प्राप्त करते संतजन ॥८६॥
भक्त के हस्ताग्र से (हाथ की उँगलियों से) दिया गया भोजन लेकर, पूर्ण ज्ञान-प्रकाशवाले आत्मा का ध्यान करके, इसप्रकार सत् तप को (सम्यक् तप को) तपकर, वह सत् तपस्वी (सच्चा तपस्वी) देदीप्यमान मुक्तिवारांगना को (मुक्तिरूपी स्त्री को) प्राप्त करता है ।

*प्रतिग्रह = 'आहारजल शुद्ध है; तिष्ठ, तिष्ठ, तिष्ठ, (ठहरिये ठहरिये, ठहरिये)' ऐसा कहकर आहार-ग्रहण की प्रार्थना करना; कृपा करने के लिये प्रार्थना; आदर-सन्मान । (इसप्रकार प्रतिग्रह किया जाने पर, यदि मुनि कृपा करके ठहर जायें तो दाता के सात गुणों से युक्त श्रावक उन्हें अपने घर में ले जाकर, उच्च-आसन पर विराजमान करके, पाँव धोकर, पूजन करता है और प्रणाम करता है । फिर मन-वचन-काया की शुद्धि-पूर्वक शुद्ध भिक्षा देता है ।)

*यहाँ उद्धृत की गई गाथा समयसार में नहीं है, परन्तु प्रवचनसार में (प्रथम अधिकार की २०वीँ गाथा की तात्पर्यवृत्ति-टीका में) अवतरणरूप है ।