पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
मुनीनां कायमलादित्यागस्थानशुद्धिकथनमिदम् । शुद्धनिश्चयतो जीवस्य देहाभावान्न चान्नग्रहणपरिणतिः । व्यवहारतो देहः विद्यते; तस्यैवहि देहे सतिह्याहारग्रहणं भवति; आहारग्रहणान्मलमूत्रादयः संभवन्त्येव । अत एव संयमिनांमलमूत्रविसर्गस्थानं निर्जन्तुकं परेषामुपरोधेन विरहितम् । तत्र स्थाने शरीरधर्मं कृत्वापश्चात्तस्मात्स्थानादुत्तरेण कतिचित् पदानि गत्वा ह्युदङ्मुखः स्थित्वा चोत्सृज्य कायकर्माणि संसारकारणं परिणामं मनश्च संसृतेर्निमित्तं, स्वात्मानमव्यग्रो भूत्वा ध्यायति यः परमसंयमीमुहुर्मुहुः कलेवरस्याप्यशुचित्वं वा परिभावयति, तस्य खलु प्रतिष्ठापनसमितिरिति । नान्येषांस्वैरवृत्तीनां यतिनामधारिणां काचित् समितिरिति । (कलश--मालिनी) समितिरिह यतीनां मुक्ति साम्राज्यमूलं जिनमतकुशलानां स्वात्मचिंतापराणाम् । मधुसखनिशितास्त्रव्रातसंभिन्नचेतः सहितमुनिगणानां नैव सा गोचरा स्यात् ॥८८॥ (कलश--हरिणी) समितिसमितिं बुद्ध्वा मुक्त्यङ्गनाभिमतामिमां भवभवभयध्वान्तप्रध्वंसपूर्णशशिप्रभाम् । मुनिप तव सद्दीक्षाकान्तासखीमधुना मुदा जिनमततपःसिद्धं यायाः फलं किमपि ध्रुवम् ॥८9॥ (कलश--द्रुतविलंबित) समितिसंहतितः फलमुत्तमं सपदि याति मुनिः परमार्थतः । न च मनोवचसामपि गोचरं किमपि केवलसौख्यसुधामयम् ॥९०॥ यह, मुनियों को काय-मलादि-त्याग के स्थान की शुद्धि का कथन है । शुद्ध-निश्चय से जीव को देह का अभाव होने से अन्न-ग्रहणरूप परिणति नहीं है । व्यवहार से (जीव को) देह है; इसलिये उसी को देह होने से आहार-ग्रहण है; आहार-ग्रहण के कारण मल-मूत्रादिक संभवित हैं ही । इसीलिये संयमियों को मल-मूत्रादिक के उत्सर्ग (त्याग) का स्थान जन्तु-रहित तथा पर के उपरोध रहित होता है । उस स्थान पर शरीर-धर्म करके फिर जो परम-संयमी उस स्थान से उत्तर-दिशा में कुछ डग जाकर उत्तर मुख खड़े रहकर, काय-कर्मों का (शरीर की क्रियाओं का), संसार के कारणभूत हों ऐसे परिणाम का तथा संसार के निमित्तभूत मन का उत्सर्ग करके, निज-आत्मा को अव्यग्र (एकाग्र) होकर ध्याता है अथवा पुनः पुनः कलेवर की (शरीर की) भी अशुचिता सर्व ओर से भाता है, उसे वास्तव में प्रतिष्ठापन समिति होती है । दूसरे स्वच्छन्द-वृत्तिवाले यति नामधारियों को कोई समिति नहीं होती । (कलश--हरिगीत)
जिनमत में कुशल और स्वात्म-चिन्तन में परायण ऐसे यतिओं को यह समिति मुक्ति साम्राज्य का मूल है । कामदेव के तीक्ष्ण अस्त्र-समूह से भिदे हुए हृदयवाले मुनिगणों को वह (समिति) गोचर होती ही नहीं ।आत्मचिंतन में परायण और जिनमत में कुशल । उन यतिवरों को यह समिति है मूल शिव साम्राज्य की ॥ कामबाणों से विंधे हैं हृदय जिनके अरे उन । मुनिवरों के यह समिति तो हमें दिखती ही नहीं ॥८८॥ (कलश--रोला)
हे मुनि ! समितियों में श्रेष्ठ इस समिति को, कि जो मुक्तिरूपी स्त्री को प्यारी है, जो भव-भव के भयरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिये पूर्ण-चन्द्र की प्रभा समान है तथा तेरी सत्-दीक्षारूपी कान्ता की (सच्ची दीक्षारूपी प्रिय स्त्री की) सखी है उसे, अब प्रमोद से जानकर, जिनमत कथित तप से सिद्ध होनेवाले ऐसे किसी (अनुपम) ध्रुव फल को तू प्राप्त करेगा ।दीक्षाकांतासखी परमप्रिय मुक्तिरमा को । भवतपनाशक चन्द्रप्रभसम श्रेष्ठ समिति जो ॥ उसे जानकर हे मुनि तुम जिनमत प्रतिपादित । तप से होनेवाले फल को प्राप्त करोगे ॥८९॥ (कलश--दोहा)
समिति की संगति द्वारा वास्तव में मुनि मन-वाणी को भी अगोचर (मन से अचिन्त्य और वाणी से अकथ्य) ऐसा कोई केवल सुखामृतमय उत्तम फल शीघ्र प्राप्त करता है ।
समिति सहित मुनिवरों को उत्तम फल अविलम्ब । केवल सौख्य सुधामयी अकथित और अचिन्त्य ॥९०॥ |