+ व्यवहार मनोगुप्ति -
कालुस्समोहसण्णारागद्दोसाइअसुहभावाणं ।
परिहारो मणुगुत्ती ववहारणयेण परिकहियं ॥66॥
कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावनाम् ।
परिहारो मनोगुप्तिः व्यवहारनयेन परिकथिता ॥६६॥
मोह राग द्वेष संज्ञा कलुषता के भाव जो ।
इन सभी का परिहार मनगुप्ति कहा व्यवहार से ॥६६॥
अन्वयार्थ : [कालुष्यमोहसंज्ञारागद्वेषाद्यशुभभावानाम्] कलुषता, मोह, संज्ञा, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के [परिहारः] परिहार को [व्यवहारनयेन] व्यवहारनय से [मनोगुप्तिः] मनोगुप्ति [परिकथिता] कहा है ।
Meaning : Renunciation of passionateness, delusion, animatefeeling, attachment and aversion,

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् ।

क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् । मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा । रागःप्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामोद्वेषः । इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति ।

(कलश--वसंततिलका)
गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थ-
चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य ।
बाह्यान्तरङ्गपरिषङ्गविवर्जितस्य
श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य ॥९१॥



यह, व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है ।

  • क्रोध, मान, माया और लोभ नामक चार कषायों से क्षुब्ध हुआ चित्त सो कलुषता है ।
  • दर्शनमोह और चारित्रमोह ऐसे (दो) भेदों के कारण मोह दो प्रकार का है ।
  • आहार-संज्ञा, भय-संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह-संज्ञा ऐसे (चार) भेदों के कारण संज्ञा चार प्रकार की है ।
  • प्रशस्त राग और अप्रशस्त राग ऐसे (दो) भेदों के कारण राग दो प्रकार का है ।
  • असह्य जनों के प्रति अथवा असह्य पदार्थ-समूहों के प्रति वैर का परिणाम वह द्वेष है ।
इत्यादि अशुभ परिणाम प्रत्ययों का परिहार ही (अशुभ परिणामरूप भाव पापास्रवों का त्याग ही) व्यवहारनय के अभिप्राय से मनोगुप्ति है ।

(कलश--रोला)
जो जिनेन्द्र के चरणों को स्मरण करे नित ।
बाह्य और आन्तरिक ग्रंथ से सदा रहित हैं ॥
परमागम के अर्थों में मन चिन्तन रत है ।
उन जितेन्द्रियों के तो गुप्ति सदा ही होगी ॥९१॥
जिसका मन परमागम के अर्थों के चिन्तन-युक्त है, जो विजितेन्द्रिय है (अर्थात् जिसने इन्द्रियों को विशेषरूप से जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित है और जो श्रीजिनेन्द्रचरण के स्मरण से संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है ।