पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारमनोगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । क्रोधमानमायालोभाभिधानैश्चतुर्भिः कषायैः क्षुभितं चित्तं कालुष्यम् । मोहो दर्शनचारित्रभेदाद् द्विधा । संज्ञा आहारभयमैथुनपरिग्रहाणां भेदाच्चतुर्धा । रागःप्रशस्ताप्रशस्तभेदेन द्विविधः । असह्यजनेषु वापि चासह्यपदार्थसार्थेषु वा वैरस्य परिणामोद्वेषः । इत्याद्यशुभपरिणामप्रत्ययानां परिहार एव व्यवहारनयाभिप्रायेण मनोगुप्तिरिति । (कलश--वसंततिलका) गुप्तिर्भविष्यति सदा परमागमार्थ- चिंतासनाथमनसो विजितेन्द्रियस्य । बाह्यान्तरङ्गपरिषङ्गविवर्जितस्य श्रीमज्जिनेन्द्रचरणस्मरणान्वितस्य ॥९१॥ यह, व्यवहार मनोगुप्ति के स्वरूप का कथन है ।
(कलश--रोला)
जिसका मन परमागम के अर्थों के चिन्तन-युक्त है, जो विजितेन्द्रिय है (अर्थात् जिसने इन्द्रियों को विशेषरूप से जीता है ), जो बाह्य तथा अभ्यन्तर संग रहित है और जो श्रीजिनेन्द्रचरण के स्मरण से संयुक्त है, उसे सदा गुप्ति होती है ।
जो जिनेन्द्र के चरणों को स्मरण करे नित । बाह्य और आन्तरिक ग्रंथ से सदा रहित हैं ॥ परमागम के अर्थों में मन चिन्तन रत है । उन जितेन्द्रियों के तो गुप्ति सदा ही होगी ॥९१॥ |