+ वचन-गुप्ति -
थीराजचोरभत्तकहादिवयणस्स पावहेउस्स ।
परिहारो वयगुत्ती अलियादिणियत्तिवयणं वा ॥67॥
स्त्रीराजचौरभक्त कथादिवचनस्य पापहेतोः ।
परिहारो वाग्गुप्तिरलीकादिनिवृत्तिवचनं वा ॥६७॥
पापकारण राज दारा चोर भोजन की कथा ।
मृषा भाषण त्याग लक्षण है वचन की गुप्ति का ॥६७॥
अन्वयार्थ : [पापहेतोः] पाप के हेतुभूत ऐसे [स्त्रीराजचौरभक्तकथादिवचनस्य] स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा, भक्तकथा इत्यादिरूप वचनों का [परिहारः] परिहार [वा] अथवा [अलीकादिनिवृत्तिवचनं] असत्यादिक की निवृत्तिवाले वचन [वाग्गुप्तिः] वह वचनगुप्ति है ।
Meaning : Renunciation of censurable gossip relating to women, state, theft, food, etc., which cause the bondage of evil Karmas, or refraining from telling falsehoods, etc., (is called) control of speech, (Vachan-gupti).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह वाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् ।

अतिप्रवृद्धकामैः कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्तव्याश्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा । राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः । चौराणां चौरप्रयोगकथनंचौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसाभक्त कथा । आसामपि कथानां परिहारो वाग्गुप्तिः । अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिः । अन्येषांअप्रशस्तवचसां निवृत्तिरेव वा वाग्गुप्तिः इति ।

तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः-
(अनुष्टुभ्)
एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः ।
एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ॥

तथा हि -
(कलश--मंदाक्रांता)
त्यक्त्वा वाचं भवभयकरीं भव्यजीवः समस्तां
ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् ।
पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानन्दसौख्याकरीं तां
प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ॥9२॥



यहाँ वचन-गुप्ति का स्वरूप कहा है ।

  • जिन्हें काम अति वृद्धि को प्राप्त हुआ हो ऐसे कामी जनों द्वारा की जानेवाली और सुनी जानेवाली ऐसी जो स्त्रियों की संयोग-वियोग जनित विविध वचन-रचना (स्त्रियों सम्बन्धी बात) वही स्त्री-कथा है;
  • राजाओं का युद्धहेतुक कथन (राजाओं द्वारा किये जानेवाले युद्धादिक का कथन) वह राजकथा प्रपंच है;
  • चोरों का चोरप्रयोग कथन वह चोर-कथा-विधान है (चोरों द्वारा किये जानेवाले चोरी के प्रयोगों की बात वह चोरकथा है );
  • अति वृद्धि को प्राप्त भोजन की प्रीति द्वारा मैदा की पूरी और शक्कर, दही - शक्कर, मिश्री इत्यादि अनेक प्रकार के अशन-पान की प्रशंसा वह भक्तकथा (भोजनकथा) है ।
इन समस्त कथाओं का परिहार सो वचनगुप्ति है । असत्य की निवृत्ति भी वचनगुप्ति है । अथवा (असत्य उपरान्त) अन्य अप्रशस्त वचनों की निवृत्ति वही वचनगुप्ति है । इसप्रकार (आचार्यवर) श्री पूज्यपादस्वामी ने (समाधितंत्र में १७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(हरिगीत)
वाहिर वचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग ।
है परमात्म प्रकाश का, थोड़े में यह योग ॥स.तं.१७॥
इसप्रकार बहिर्वचनों को त्यागकर अन्तर्वचनों को अशेषतः (सम्पूर्णरूप से) त्यागना । यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) है कि जो योग परमात्मा का प्रदीप है (परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है )

और

(कलश--रोला)
भवभयकारी वाणी तज शुध सहज विलसते ।
एकमात्र कर ध्यान नित्य चित् चमत्कार का ॥
पापतिमिर का नाश सहज महिमा निजसुख की ।
मुक्तिपुरी को प्राप्त करें भविजीव निरन्तर ॥९२॥
भव्यजीव भवभय की करनेवाली समस्त वाणी को छोड़कर शुद्धसहज - विलसते चैतन्य चमत्कार का एक का ध्यान करके, फिर, पापरूपी, तिमिर-समूह को नष्ट करके सहज महिमावंत आनन्द सौख्य की खानरूप ऐसी उस मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त करता है ।