पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह वाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् । अतिप्रवृद्धकामैः कामुकजनैः स्त्रीणां संयोगविप्रलंभजनितविविधवचनरचना कर्तव्याश्रोतव्या च सैव स्त्रीकथा । राज्ञां युद्धहेतूपन्यासो राजकथाप्रपंचः । चौराणां चौरप्रयोगकथनंचौरकथाविधानम् । अतिप्रवृद्धभोजनप्रीत्या विचित्रमंडकावलीखंडदधिखंडसिताशनपानप्रशंसाभक्त कथा । आसामपि कथानां परिहारो वाग्गुप्तिः । अलीकनिवृत्तिश्च वाग्गुप्तिः । अन्येषांअप्रशस्तवचसां निवृत्तिरेव वा वाग्गुप्तिः इति । तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः- (अनुष्टुभ्) एवं त्यक्त्वा बहिर्वाचं त्यजेदन्तरशेषतः । एष योगः समासेन प्रदीपः परमात्मनः ॥ तथा हि - (कलश--मंदाक्रांता) त्यक्त्वा वाचं भवभयकरीं भव्यजीवः समस्तां ध्यात्वा शुद्धं सहजविलसच्चिच्चमत्कारमेकम् । पश्चान्मुक्तिं सहजमहिमानन्दसौख्याकरीं तां प्राप्नोत्युच्चैः प्रहतदुरितध्वांतसंघातरूपः ॥9२॥ यहाँ वचन-गुप्ति का स्वरूप कहा है ।
(हरिगीत)
इसप्रकार बहिर्वचनों को त्यागकर अन्तर्वचनों को अशेषतः (सम्पूर्णरूप से) त्यागना । यह, संक्षेपसे योग (अर्थात् समाधि) है कि जो योग परमात्मा का प्रदीप है (परमात्माको प्रकाशित करनेवाला दीपक है ) । वाहिर वचन विलास तज, तज अन्तर मन भोग । है परमात्म प्रकाश का, थोड़े में यह योग ॥स.तं.१७॥ और (कलश--रोला)
भव्यजीव भवभय की करनेवाली समस्त वाणी को छोड़कर शुद्धसहज - विलसते चैतन्य चमत्कार का एक का ध्यान करके, फिर, पापरूपी, तिमिर-समूह को नष्ट करके सहज महिमावंत आनन्द सौख्य की खानरूप ऐसी उस मुक्ति को अतिशयरूप से प्राप्त करता है ।
भवभयकारी वाणी तज शुध सहज विलसते । एकमात्र कर ध्यान नित्य चित् चमत्कार का ॥ पापतिमिर का नाश सहज महिमा निजसुख की । मुक्तिपुरी को प्राप्त करें भविजीव निरन्तर ॥९२॥ |