पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयनयेन मनोवाग्गुप्तिसूचनेयम् । सकलमोहरागद्वेषाभावादखंडाद्वैतपरमचिद्रूपे सम्यगवस्थितिरेव निश्चयमनोगुप्तिः । हेशिष्य त्वं तावदचलितां मनोगुप्तिमिति जानीहि । निखिलानृतभाषापरिहृतिर्वा मौनव्रतं च । मूर्तद्रव्यस्य चेतनाभावाद् अमूर्तद्रव्यस्येंद्रियज्ञानागोचरत्वादुभयत्र वाक्प्रवृत्तिर्न भवति । इतिनिश्चयवाग्गुप्तिस्वरूपमुक्तम् । (कलश--शार्दूलविक्रीडित) शस्ताशस्तमनोवचस्समुदयं त्यक्त्वात्मनिष्ठापरः शुद्धाशुद्धनयातिरिक्त मनघं चिन्मात्रचिन्तामणिम् । प्राप्यानंतचतुष्टयात्मकतया सार्धं स्थितां सर्वदा जीवन्मुक्ति मुपैति योगितिलकः पापाटवीपावकः ॥९४॥ यह, निश्चयनय से मनोगुप्ति और वचनगुप्ति की सूचना है । सकल मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण अखण्ड अद्वैत परम-चिद्रूप में सम्यक् रूप सेअवस्थित रहना ही निश्चय-मनोगुप्ति है । हे शिष्य ! तू उसे वास्तव में अचलित मनोगुप्ति जान । समस्त असत्य भाषा का परिहार अथवा मौनव्रत सो वचनगुप्ति है । मूर्त-द्रव्य को चेतना का अभाव होने के कारण और अमूर्त-द्रव्य इन्द्रियज्ञान से अगोचर होने के कारण दोनों के प्रति वचनप्रवृत्ति नहीं होती । इसप्रकार निश्चय वचनगुप्ति का स्वरूप कहा गया । (कलश--हरिगीत)
पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान ऐसा योगितिलक (मुनि-शिरोमणि) प्रशस्त - अप्रशस्त मन - वाणी के समुदाय को छोड़कर आत्मनिष्ठा में परायण रहता हुआ, शुद्धनय और अशुद्धनय से रहित ऐसे अनघ (निर्दोष) चैतन्यमात्र चिन्तामणि को प्राप्त करके, अनन्त चतुष्टयात्मकपने के साथ सर्वदा स्थित ऐसी जीवन-मुक्ति को प्राप्त करता है ।
अप्रशस्त और प्रशस्त सब मनवचन के समुदाय को । तज आत्मनिष्ठा में चतुर पापाटवी दाहक मुनी ॥ चिन्मात्र चिन्तामणि शुद्धाशुद्ध विरहित प्राप्त कर । अनंतदर्शनज्ञानसुखमय मुक्ति की प्राप्ति करें ॥९४॥ |