+ निश्चय काय-गुप्ति -
कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती ।
हिंसाइणियत्ती वा सरीरगुत्ति त्ति णिद्दिट्ठा ॥70॥
कायक्रियानिवृत्तिः कायोत्सर्गः शरीरके गुप्तिः ।
हिंसादिनिवृत्तिर्वा शरीरगुप्तिरिति निर्दिष्टा ॥७०॥
दैहिक क्रिया की निर्वृत्ति तनगुप्ति कायोत्सर्ग है ।
या निवृत्ति हिंसादि की ही कायगुप्ति जानना ॥७०॥
अन्वयार्थ : [कायक्रियानिवृत्तिः] काय-क्रियाओं की निवृत्तिरूप [कायोत्सर्गः] कायोत्सर्ग [शरीरके गुप्तिः] शरीर सम्बन्धी गुप्ति है; [वा] अथवा [हिंसादिनिवृत्तिः] हिंसादि की निवृत्ति को [शरीरगुप्तिः इति] शरीर-गुप्ति [निर्दिष्टा] कहा है ।
Meaning : (From the real point of view) refraining from bodi. ly movements, non-attachinent to the body, restraint of body or renunciation of causing injury, etc., is called control of body.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् ।

सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एवगुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणां त्रसानां च हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा । परमसंयमधरः परमजिन-योगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति ।

तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने -
(कलश--अनुष्टुभ्)
उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् ।
स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥


तथा हि -
(कलश--अनुष्टुभ्)
अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः ।
व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ॥9५॥



यह, निश्चय शरीर-गुप्ति के स्वरूप का कथन है ।

सर्व जनों को काया-सम्बन्धी बहु क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है; वही गुप्ति (अर्थात् काय-गुप्ति) है । अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसों की हिंसा-निवृत्ति सो काय-गुप्ति है । जो परम-संयमधर परम-जिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीर में अपने (चैतन्यरूप) शरीर से प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंदमूर्ति ही (अकंप दशा ही) निश्चय-काय-गुप्ति है । इसीप्रकार श्री तत्त्वानुशासन में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--सोरठा)
दैहिक क्रिया कलाप भव के कारण भाव सब ।
तज निज आतम माँहि रहना कायोत्सर्ग है ॥२२॥
काय-क्रियाओं को तथा भव के कारणभूत (विकारी) भाव को छोड़कर अव्यग्ररूप से निज आत्मा में स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है ।

(कलश--दोहा)
परिस्पन्दमय देह यह मैं हूँ अपरिस्पन्द ।
'यह मेरी' - व्यवहार यह तजूँ इसे अविलम्ब ॥९५॥
अपरिस्पन्दात्मक ऐसे मुझे परिस्पन्दात्मक शरीर व्यवहार से है; इसलिये मैं शरीर की विकृति को छोड़ता हूँ ।