पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयशरीरगुप्तिस्वरूपाख्यानमेतत् । सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रिया विद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एवगुप्तिर्भवति । पंचस्थावराणां त्रसानां च हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा । परमसंयमधरः परमजिन-योगीश्वरः यः स्वकीयं वपुः स्वस्य वपुषा विवेश तस्यापरिस्पंदमूर्तिरेव निश्चयकायगुप्तिरिति । तथा चोक्तं तत्त्वानुशासने - (कलश--अनुष्टुभ्) उत्सृज्य कायकर्माणि भावं च भवकारणम् । स्वात्मावस्थानमव्यग्रं कायोत्सर्गः स उच्यते ॥ तथा हि - (कलश--अनुष्टुभ्) अपरिस्पन्दरूपस्य परिस्पन्दात्मिका तनुः । व्यवहाराद्भवेन्मेऽतस्त्यजामि विकृतिं तनोः ॥9५॥ यह, निश्चय शरीर-गुप्ति के स्वरूप का कथन है । सर्व जनों को काया-सम्बन्धी बहु क्रियाएँ होती हैं; उनकी निवृत्ति सो कायोत्सर्ग है; वही गुप्ति (अर्थात् काय-गुप्ति) है । अथवा पाँच स्थावरों की और त्रसों की हिंसा-निवृत्ति सो काय-गुप्ति है । जो परम-संयमधर परम-जिनयोगीश्वर अपने (चैतन्यरूप) शरीर में अपने (चैतन्यरूप) शरीर से प्रविष्ट हो गये, उनकी अपरिस्पंदमूर्ति ही (अकंप दशा ही) निश्चय-काय-गुप्ति है । इसीप्रकार श्री तत्त्वानुशासन में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--सोरठा)
काय-क्रियाओं को तथा भव के कारणभूत (विकारी) भाव को छोड़कर अव्यग्ररूप से निज आत्मा में स्थित रहना, वह कायोत्सर्ग कहलाता है ।दैहिक क्रिया कलाप भव के कारण भाव सब । तज निज आतम माँहि रहना कायोत्सर्ग है ॥२२॥ (कलश--दोहा)
अपरिस्पन्दात्मक ऐसे मुझे परिस्पन्दात्मक शरीर व्यवहार से है; इसलिये मैं शरीर की विकृति को छोड़ता हूँ ।
परिस्पन्दमय देह यह मैं हूँ अपरिस्पन्द । 'यह मेरी' - व्यवहार यह तजूँ इसे अविलम्ब ॥९५॥ |