+ अर्हत् परमेश्वर -
घणघाइकम्मरहिया केवलणाणाइपरमगुणसहिया ।
चोत्तिसअदिसयजुत्ता अरिहंता एरिसा होंति ॥71॥
घनघातिकर्मरहिताः केवलज्ञानादिपरमगुणसहिताः ।
चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ता अर्हन्त ईद्रशा भवन्ति ॥७१॥
अरिहंत केवलज्ञान आदि गुणों से संयुक्त हैं ।
घनघाति कर्मों से रहित चौंतीस अतिशय युक्त हैं ॥७१॥
अन्वयार्थ : [घनघातिकर्मरहिताः] घनघातिकर्म रहित, [केवलज्ञानादि-परमगुणसहिताः] केवलज्ञानादि परम गुणों सहित और [चतुस्त्रिंशदतिशययुक्ताः] चौंतीस अतिशय संयुक्त -- [ईद्दशाः] ऐसे, [अर्हन्तः] अर्हन्त [भवन्ति] होते हैं ।
Meaning : Worshipful Lords (Arhats) are those who are entirely free from all the (four) destrutive Karmas, and are possessed of the highest attributes, omniscience, etc., and are crowned with the thirty-four extraordinary glories, (Atishaya).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भगवतोऽर्हत्परमेश्वरस्य स्वरूपाख्यानमेतत् ।

आत्मगुणघातकानि घातिकर्माणि घनरूपाणि सान्द्रीभूतात्मकानि ज्ञानदर्शनावरणान्तरायमोहनीयानि तैर्विरहितास्तथोक्ताः । प्रागुप्तघातिचतुष्कप्रध्वंसनासादितत्रैलोक्य-प्रक्षोभहेतुभूतसकलविमलकेवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलशक्ति केवलसुखसहिताश्च । निःस्वेद-निर्मलादिचतुस्त्रिंशदतिशयगुणनिलयाः । ईद्रशा भवन्ति भगवन्तोऽर्हन्त इति ।

(कलश--मालिनी)
जयति विदितगात्रः स्मेरनीरेजनेत्रः
सुकृतनिलयगोत्रः पंडिताम्भोजमित्रः ।
मुनिजनवनचैत्रः कर्मवाहिन्यमित्रः
सकलहितचरित्रः श्रीसुसीमासुपुत्रः ॥९६॥


(कलश--मालिनी)
स्मरकरिमृगराजः पुण्यकंजाह्निराजः
सकलगुणसमाजः सर्वकल्पावनीजः ।
स जयति जिनराजः प्रास्तदुःकर्मबीजः
पदनुतसुरराजस्त्यक्त संसारभूजः ॥९७॥


(कलश--मालिनी)
जितरतिपतिचापः सर्वविद्याप्रदीपः
परिणतसुखरूपः पापकीनाशरूपः ।
हतभवपरितापः श्रीपदानम्रभूपः
स जयति जितकोपः प्रह्वविद्वत्कलापः ॥९८॥


(मालिनी)
जयति विदितमोक्षः पद्मपत्रायताक्षः
प्रजितदुरितकक्षः प्रास्तकंदर्पपक्षः ।
पदयुगनतयक्षः तत्त्वविज्ञानदक्षः
कृतबुधजनशिक्षः प्रोक्त निर्वाणदीक्षः ॥९९॥


(मालिनी)
मदननगसुरेशः कान्तकायप्रदेशः
पदविनतयमीशः प्रास्तकीनाशपाशः ।
दुरघवनहुताशः कीर्तिसंपूरिताशः
जयति जगदधीशः चारुपद्मप्रभेशः ॥१००॥



यह, भगवान अर्हत् परमेश्वर के स्वरूप का कथन है ।

(भगवन्त अर्हन्त कैसे होते हैं ?)
  1. जो आत्म-गुणों के घातक घाति-कर्म हैं और जो घन अर्थात् गाढ़ हैं -- ऐसे जो ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अन्तराय और मोहनीय कर्म उनसे रहित वर्णन किये गये;
  2. जो पूर्व में बोये गये चार घातिकर्मों के नाश से प्राप्त होते हैं ऐसे, तीन लोक को प्रक्षोभ के हेतुभूत सकल-विमल (सर्वथा निर्मल) केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन, केवल-शक्ति (वीर्य, बल) और केवल-सुख सहित; तथा
  3. स्वेद-रहित, मल-रहित इत्यादि चौंतीस अतिशय गुणों के निवास स्थानरूप;
ऐसे, भगवन्त अर्हंत होते हैं ।

(कलश--हरिगीत)
विकसित कमलवत नेत्र पुण्य निवास जिनका गोत्र है ।
हैं पण्डिताम्बुज सूर्य मुनिजन विपिन चैत्र वसंत हैं ॥
जो कर्मसेना शत्रु जिनका सर्वहितकर चरित है ।
वे सुत सुसीमा पद्मप्रभजिन विदित तन सर्वत्र हैं ॥९६॥
प्रख्यात (अर्थात् परमौदारिक) जिनका शरीर है, प्रफुल्लित कमल जैसे जिनके नेत्र हैं, पुण्य का निवासस्थान (अर्थात् तीर्थंकरपद) जिनका गोत्र है, पण्डितरूपी कमलों को (विकसित करनेके लिये) जो सूर्य हैं, मुनिजनरूपी वन को जो चैत्र हैं (अर्थात् मुनिजनरूपी वन को खिलाने में जो वसन्त-ऋतु समान हैं ), कर्म की सेना के जो शत्रु हैं और सर्व को हितरूप जिनका चरित्र है, वे श्री सुसीमा माता के सुपुत्र (श्री पद्मप्रभ तीर्थंकर) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
जो गुणों के समुदाय एवं पुण्य कमलों के रवि ।
कामना के कल्पतरु अर कामगज को केशरी ॥
देवेन्द्र जिनको नमें वे जयवन्त श्री जिनराजजी ।
हे कर्मतरु के बीजनाशक तजा भव तरु आपने ॥९७॥
जो कामदेवरूपी हाथी को (नष्ट करने वाले) सिंह हैं, जो पुण्यरूपी कमल को (विकसित करने के लिये) भानु हैं, जो सर्व गुणों के समाज (समुदाय) हैं, जो सर्व कल्पित (चिंतित) देनेवाले कल्पवृक्ष हैं, जिन्होंने दुष्ट कर्म के बीज को नष्ट किया है, जिनके चरण में सुरेन्द्र नमते हैं और जिन्होंने संसाररूपी वृक्ष का त्याग किया है, वे जिनराज (श्री पद्मप्रभ भगवान) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
दुष्कर्म के यमराज जीता काम शर को आपने ।
राजेन्द्र चरणों में नमें रिपु क्रोध जीता आपने ॥
सर्वविद्याप्रकाशक भवताप नाशक आप हो ।
श्रीपद्म जिन जयवंत जिनको सदा विद्वद्जन नमें ॥९८॥
कामदेव के बाण को जिन्होंने जीत लिया है, सर्व विद्याओं के जो प्रदीप (प्रकाशक) हैं, जिनका स्वरूप सुखरूप से परिणमित हुआ है, पाप को (नष्ट करने से) जो यमरूप हैं, भव के परिताप का जिन्होंने नाश किया है, भूपति जिनके श्रीपद में (महिमायुक्त पुनीत चरणों में) नमते हैं, क्रोध को जिन्होंने जीता है और विद्वानों का समुदाय जिनके आगे नत हो जाता / झुक जाता है, वे (श्री पद्मप्रभनाथ) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
पद्मपत्रों सम नयन दुष्कर्म से जो पार हैं ।
दक्ष हैं विज्ञान में अर यक्षगण जिनको नमें ॥
बुधजनों के गुरु एवं मुक्ति जिनकी विदित है ।
कामनाशक पद्मप्रभजिन जगत में जयवंत हैं ॥९९॥
प्रसिद्ध जिनका मोक्ष है, पद्मपत्र (कमल के पत्ते) जैसे दीर्घ जिनके नेत्र हैं, पाप-कक्षा को जिन्होंने जीत लिया है, कामदेव के पक्ष का जिन्होंने नाश किया है, यक्ष जिनके चरण-युगल में नमते हैं, तत्त्व-विज्ञान में जो दक्ष (चतुर) हैं, बुधजनों को जिन्होंने शिक्षा (सीख) दी है और निर्वाण दीक्षा का जिन्होंने उच्चारण किया है, वे (श्री पद्मप्रभ जिनेन्द्र) जयवन्त हैं ।

(कलश--हरिगीत)
मदनगज को वज्रधर पर मदन सम सौन्दर्य है ।
मुनिगण नमें नित चरण में यमराज नाशक शौर्य है ॥
पापवन को अनल जिनकी कीर्ति दशदिश व्याप्त है ।
जगतपति जिन पद्मप्रभ नित जगत में जयवंत हैं ॥१००॥
कामदेवरूपी पर्वत के लिये (अर्थात् उसे तोड़ देने में) जो (वज्रधर) इन्द्र समान हैं, कान्त (मनोहर) जिनका काय-प्रदेश है, मुनिवर जिनके चरण में नमते हैं, यम के पाश का जिन्होंने नाश किया है, दुष्ट पापरूपी वन को (जलाने के लिये) जो अग्नि हैं, सर्व दिशाओं में जिनकी कीर्ति व्याप्त हो गई है और जगत के जो अधीश (नाथ) हैं, वे सुन्दर पद्मप्रभेश जयवन्त हैं ।