+ सिद्ध-परमेष्ठि -
णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा ।
लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ॥72॥
नष्टाष्टकर्मबन्धा अष्टमहागुणसमन्विताः परमाः ।
लोकाग्रस्थिता नित्याः सिद्धास्ते ईद्रशा भवन्ति
नष्ट कीने अष्ट विध विधि स्वयं में एकाग्र हो ।
अष्ट गुण से सहित सिध थित हुए हैं लोकाग्र में ॥७२॥
अन्वयार्थ : [नष्टाष्टकर्मबन्धाः] आठ कर्मों के बन्ध को जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, [अष्टमहागुणसमन्विताः] आठ महागुणों सहित, [परमाः] परम, [लोकाग्रस्थिताः] लोक के अग्र में स्थित और [नित्याः] नित्य [ईद्रशाः] ऐसे, [तेसिद्धाः] वे सिद्ध [भवन्ति] होते हैं ।
Meaning : Those (souls), who have destroyed the bondage of the eight Karmas, are possessed of the eight great attributes,

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठिनां स्वरूपमत्रोक्तम् ।

निरवशेषेणान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्ट-कर्मबंधाः । क्षायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्च । त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात्परमाः । त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकाग्रस्थिताः । व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्याय-प्रच्यवनाभावान्नित्याः । ईद्रशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति ।

(कलश--मालिनी)
व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः
त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात् ।
सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे
निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ॥१०१॥


(कलश--स्रग्धरा)
नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ताः
तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धयै निरुपमविशदज्ञानद्रक्शक्ति युक्तान् ।
सिद्धान् नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान्
अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान् ॥१०२॥


(कलश--अनुष्टुभ्)
स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः ।
नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ॥१०३॥



सिद्धि के परम्परा हेतुभूत ऐसे भगवन्त सिद्ध-परमेष्ठियों का स्वरूप यहाँ कहा है ।

  • निरवशेषरूप से अन्तर्मुखाकार, ध्यान-ध्येय के विकल्प रहित निश्चय - परम-शुक्लध्यान के बल से जिन्होंने आठ-कर्म के बन्ध को नष्ट किया है ऐसे;
  • क्षायिक सम्यक्त्वादि अष्ट गुणों की पुष्टि से तुष्ट;
  • विशिष्ट गुणों के आधार होने से तत्त्व के तीन स्वरूपों में परम;
  • तीन लोक के शिखर से आगे गति हेतु का अभाव होने से लोक के अग्र में स्थित;
  • व्यवहार से अभूतपूर्व पर्याय में से च्युत होने का अभाव होने के कारण नित्य;
ऐसे, वे भगवन्त सिद्ध-परमेष्ठी होते हैं ।

(कलश--दोहा)
निश्चय से निज में रहें नित्य सिद्ध भगवान ।
तीन लोक चूडामणी यह व्यवहार बखान ॥१०१॥
व्यवहारनय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्ध-भगवान त्रिभुवन शिखर की शिखा के (चैतन्य-घनरूप) ठोस चूड़ामणि हैं; निश्चय से वे देव सहज परम-चैतन्य-चिन्तामणि-स्वरूप नित्य-शुद्ध निज रूप में ही वास करते हैं ।

(कलश--वीर)
देहमुक्त लोकाग्र शिखर पर रहे नित्य अन्तर्यामी ।
अष्ट कर्म तो नष्ट किये पर मुक्ति सुन्दरी के स्वामी ॥
सर्व दोष से मुक्त हुए पर सर्वसिद्धि के हैं दातार ।
सर्वसिद्धि की प्राप्ति हेतु मैं करूँ वन्दना बारंबार ॥१०२॥
जो सर्व-दोषों को नष्ट करके देह-मुक्त होकर त्रिभुवन-शिखर पर स्थित हैं, जो निरुपम विशद (निर्मल) ज्ञान-दर्शन-शक्ति से युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्मों की प्रकृति के समुदाय को नष्ट किया है, जो नित्य-शुद्ध हैं, जो अनन्त हैं, अव्याबाध हैं, तीन-लोक में प्रधान हैं और मुक्ति-सुन्दरी के स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धों को सिद्धि की प्राप्ति के हेतु मैं नमन करता हूँ ।

(कलश--दोहा)
जो स्वरूप में थिर रहे शुद्ध अष्ट गुणवान ।
नष्ट किये विधि अष्ट जिन नमों सिद्ध भगवान ॥१०३॥
जो निज स्वरूप में स्थित हैं, जो शुद्ध हैं; जिन्होंने आठ-गुणरूपी सम्पदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ-कर्मों का समूह नष्ट किया है, उन सिद्धों को मैं पुनः-पुनः वन्दन करता हूँ ।