पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भगवतां सिद्धिपरंपराहेतुभूतानां सिद्धपरमेष्ठिनां स्वरूपमत्रोक्तम् । निरवशेषेणान्तर्मुखाकारध्यानध्येयविकल्पविरहितनिश्चयपरमशुक्लध्यानबलेन नष्टाष्ट-कर्मबंधाः । क्षायिकसम्यक्त्वाद्यष्टगुणपुष्टितुष्टाश्च । त्रितत्त्वस्वरूपेषु विशिष्टगुणाधारत्वात्परमाः । त्रिभुवनशिखरात्परतो गतिहेतोरभावात् लोकाग्रस्थिताः । व्यवहारतोऽभूतपूर्वपर्याय-प्रच्यवनाभावान्नित्याः । ईद्रशास्ते भगवन्तः सिद्धपरमेष्ठिन इति । (कलश--मालिनी) व्यवहरणनयेन ज्ञानपुंजः स सिद्धः त्रिभुवनशिखराग्रग्रावचूडामणिः स्यात् । सहजपरमचिच्चिन्तामणौ नित्यशुद्धे निवसति निजरूपे निश्चयेनैव देवः ॥१०१॥ (कलश--स्रग्धरा) नीत्वास्तान् सर्वदोषान् त्रिभुवनशिखरे ये स्थिता देहमुक्ताः तान् सर्वान् सिद्धिसिद्धयै निरुपमविशदज्ञानद्रक्शक्ति युक्तान् । सिद्धान् नष्टाष्टकर्मप्रकृतिसमुदयान् नित्यशुद्धाननन्तान् अव्याबाधान्नमामि त्रिभुवनतिलकान् सिद्धिसीमन्तिनीशान् ॥१०२॥ (कलश--अनुष्टुभ्) स्वस्वरूपस्थितान् शुद्धान् प्राप्ताष्टगुणसंपदः । नष्टाष्टकर्मसंदोहान् सिद्धान् वंदे पुनः पुनः ॥१०३॥ सिद्धि के परम्परा हेतुभूत ऐसे भगवन्त सिद्ध-परमेष्ठियों का स्वरूप यहाँ कहा है ।
(कलश--दोहा)
व्यवहारनय से ज्ञानपुंज ऐसे वे सिद्ध-भगवान त्रिभुवन शिखर की शिखा के (चैतन्य-घनरूप) ठोस चूड़ामणि हैं; निश्चय से वे देव सहज परम-चैतन्य-चिन्तामणि-स्वरूप नित्य-शुद्ध निज रूप में ही वास करते हैं ।निश्चय से निज में रहें नित्य सिद्ध भगवान । तीन लोक चूडामणी यह व्यवहार बखान ॥१०१॥ (कलश--वीर)
जो सर्व-दोषों को नष्ट करके देह-मुक्त होकर त्रिभुवन-शिखर पर स्थित हैं, जो निरुपम विशद (निर्मल) ज्ञान-दर्शन-शक्ति से युक्त हैं, जिन्होंने आठ कर्मों की प्रकृति के समुदाय को नष्ट किया है, जो नित्य-शुद्ध हैं, जो अनन्त हैं, अव्याबाध हैं, तीन-लोक में प्रधान हैं और मुक्ति-सुन्दरी के स्वामी हैं, उन सर्व सिद्धों को सिद्धि की प्राप्ति के हेतु मैं नमन करता हूँ ।देहमुक्त लोकाग्र शिखर पर रहे नित्य अन्तर्यामी । अष्ट कर्म तो नष्ट किये पर मुक्ति सुन्दरी के स्वामी ॥ सर्व दोष से मुक्त हुए पर सर्वसिद्धि के हैं दातार । सर्वसिद्धि की प्राप्ति हेतु मैं करूँ वन्दना बारंबार ॥१०२॥ (कलश--दोहा)
जो निज स्वरूप में स्थित हैं, जो शुद्ध हैं; जिन्होंने आठ-गुणरूपी सम्पदा प्राप्त की है और जिन्होंने आठ-कर्मों का समूह नष्ट किया है, उन सिद्धों को मैं पुनः-पुनः वन्दन करता हूँ ।
जो स्वरूप में थिर रहे शुद्ध अष्ट गुणवान । नष्ट किये विधि अष्ट जिन नमों सिद्ध भगवान ॥१०३॥ |