पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राचार्यस्वरूपमुक्तम् । ज्ञानदर्शनचारित्रतपोवीर्याभिधानैः पंचभिः आचारैः समग्राः । स्पर्शन-रसनघ्राणचक्षुः श्रोत्राभिधानपंचेन्द्रियमदान्धसिंधुरदर्पनिर्दलनदक्षाः । निखिलघोरोपसर्गविजयो-पार्जितधीरगुणगंभीराः । एवंलक्षणलक्षितास्ते भगवन्तो ह्याचार्या इति । तथा चोक्तं श्रीवादिराजदेवैः- (कलश--शार्दूलविक्रीडित) पंचाचारपरान्नकिंचनपतीन्नष्टकषायाश्रमान् चंचज्ज्ञानबलप्रपंचितमहापंचास्तिकायस्थितीन् । स्फाराचंचलयोगचंचुरधियः सूरीनुदंचद्गुणान् अंचामो भवदुःखसंचयभिदे भक्ति क्रियाचंचवः ॥ तथा हि - (कलश--हरिणी) सकलकरणग्रामालंबाद्विमुक्त मनाकुलं स्वहितनिरतं शुद्धं निर्वाणकारणकारणम् । शमदमयमावासं मैत्रीदयादममंदिरं निरुपममिदं वंद्यं श्रीचन्द्रकीर्तिमुनेर्मनः ॥१०४॥ यहाँ आचार्य का स्वरूप कहा है ।
(कलश--हरिगीत)
जो पंचाचारपरायण हैं, जो अकिंचनता के स्वामी हैं, जिन्होंने कषाय-स्थानों को नष्ट किया है, परिणमित ज्ञान के बल द्वारा जो महा पंचास्तिकाय की स्थिति को समझाते हैं, विपुल अचंचल योग में (विकसित स्थिर समाधि में) जिनकी बुद्धि निपुण है और जिनके गुण उछलते हैं, उन आचार्यों को भक्तिक्रिया में कुशल ऐसे हम भवदुःख-राशि को भेदने के लिये पूजते हैं ।अकिंचनता के धनी परवीण पंचाचार में । अर जितकषायी निपुणबुद्धि हैं समाधि योग में ॥ ज्ञानबल से बताते जो पंच अस्तिकाय हम । उन्हें पूजें भवदुखों से मुक्त होने के लिए ॥२३॥ और - (कलश--हरिगीत)
सकल इन्द्रियसमूह के आलम्बन रहित, अनाकुल, स्वहित में लीन, शुद्ध, निर्वाण के कारण का कारण, शम-दम-यम का निवास-स्थान, मैत्री-दया-दम का मन्दिर (घर) - ऐसा यह श्रीचन्द्रकीर्तिमुनि का निरुपम मन (चैतन्यपरिणमन) वंद्य है ।
सब इन्द्रियों के सहारे से रहित आकुलता रहित । स्वहित में नित हैं निरत मैत्री दया दम के धनी ॥ मुक्ति के जो हेतु शम, दम, नियम के आवास जो । उन चन्द्रकीर्ति महामुनि का हृदय वंदन योग्य है ॥१०४॥ |