+ साधुओं का स्वरूप -
वावारविप्पमुक्का चउव्विहाराहणासयारत्ता ।
णिग्गंथा णिम्मोहा साहू दे एरिसा होंति ॥75॥
व्यापारविप्रमुक्ताः चतुर्विधाराधनासदारक्ताः ।
निर्ग्रन्था निर्मोहाः साधवः ईद्रशा भवन्ति ॥७५॥
आराधना अनुरक्त नित व्यापार से भी मुक्त हैं ।
जिनमार्ग में सब साधुजन निर्मोह हैं निर्ग्रन्थ हैं ॥७५॥
अन्वयार्थ : [व्यापारविप्रमुक्ताः] व्यापार से विमुक्त (समस्त व्यापार रहित), [चतुर्विधाराधनासदारक्ताः] चतुर्विध आराधना में सदा रक्त, [निर्ग्रन्थाः] निर्ग्रंथ और [निर्मोहाः] निर्मोह - [ईद्रशाः] ऐसे, [साधवः] साधु [भवन्ति] होते हैं ।
Meaning : Those who are free from all (worldly) occupations, auce always deeply absorbed in four kinds of contemplation (Aradhana) and are possessionless and delusionless, are (said) to be the Saints (Sadhus).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् ।

ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताःअत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः । ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा-राधनासदानुरक्ताः । बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्त त्वान्निर्ग्रन्थाः । सदा निरञ्जन-निजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्निर्मोहाः च । इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमंतसीमाशोभामसृणघुसृणरजःपुंजपिंजरित-वर्णालंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेऽपि साधवः इति ।
(कलश--आर्या)
भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात् ।
मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साधोः ॥१०६॥



यह, निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरण में निरत (लीन) ऐसे सर्वसाधुओं के स्वरूप का कथन है ।

  • परम-संयमी महापुरुष होने से त्रिकाल निरावरण निरंजन परम पंचमभाव की भावना में परिणमित होने के कारण ही समस्त बाह्यव्यापार से विमुक्त;
  • ज्ञान, दर्शन, चारित्र और परम तप नाम की चतुर्विध आराधना में सदा अनुरक्त;
  • बाह्य-अभ्यंतर समस्त परिग्रह के ग्रहण रहित होने के कारण निर्ग्रंथ; तथा
  • सदा निरंजन निज कारण समयसार के स्वरूप के सम्यक् श्रद्धान, सम्यक् परिज्ञान और सम्यक् आचरण से प्रतिपक्ष ऐसे मिथ्या दर्शन, मिथ्या ज्ञान और मिथ्या चारित्र का अभाव होने के कारण निर्मोह;
ऐसे, परम निर्वाण सुन्दरी की सुन्दर माँग की शोभारूप कोमल केशर के रज-पुंज के सुवर्णरंगी अलङ्कार को (केशर-रज की कनकरंगी शोभा को) देखने में कौतूहल बुद्धिवाले वे समस्त साधु होते हैं (पूर्वोक्त लक्षणवाले, मुक्ति-सुन्दरी की अनुपमता का अवलोकन करने में आतुर बुद्धिवाले समस्त साधु होते हैं )

(कलश--दोहा)
भव सुख से जो विमुख हैं सर्व संग से मुक्त ।
उनका मन अभिवंद्य है जो निज में अनुरक्त ॥१०६॥
भववाले जीवों के भवसुख से जो विमुख है और सर्व संग के सम्बन्ध से जो मुक्त है, ऐसा वह साधु का मन हमें वंद्य है । हे साधु ! उस मन को शीघ्र निजात्मा में मग्न करो ।