
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निरन्तराखंडितपरमतपश्चरणनिरतसर्वसाधुस्वरूपाख्यानमेतत् । ये महान्तः परमसंयमिनः त्रिकालनिरावरणनिरंजनपरमपंचमभावभावनापरिणताःअत एव समस्तबाह्यव्यापारविप्रमुक्ताः । ज्ञानदर्शनचारित्रपरमतपश्चरणाभिधानचतुर्विधा-राधनासदानुरक्ताः । बाह्याभ्यन्तरसमस्तपरिग्रहाग्रहविनिर्मुक्त त्वान्निर्ग्रन्थाः । सदा निरञ्जन-निजकारणसमयसारस्वरूपसम्यक्श्रद्धानपरिज्ञानाचरणप्रतिपक्षमिथ्यादर्शनज्ञानचारित्राभावान्निर्मोहाः च । इत्थंभूतपरमनिर्वाणसीमंतिनीचारुसीमंतसीमाशोभामसृणघुसृणरजःपुंजपिंजरित-वर्णालंकारावलोकनकौतूहलबुद्धयोऽपि ते सर्वेऽपि साधवः इति । (कलश--आर्या) भविनां भवसुखविमुखं त्यक्तं सर्वाभिषंगसंबंधात् । मंक्षु विमंक्ष्व निजात्मनि वंद्यं नस्तन्मनः साधोः ॥१०६॥ यह, निरन्तर अखण्डित परम तपश्चरण में निरत (लीन) ऐसे सर्वसाधुओं के स्वरूप का कथन है ।
(कलश--दोहा)
भववाले जीवों के भवसुख से जो विमुख है और सर्व संग के सम्बन्ध से जो मुक्त है, ऐसा वह साधु का मन हमें वंद्य है । हे साधु ! उस मन को शीघ्र निजात्मा में मग्न करो ।
भव सुख से जो विमुख हैं सर्व संग से मुक्त । उनका मन अभिवंद्य है जो निज में अनुरक्त ॥१०६॥ |