+ व्यवहार-चारित्र-अधिकार का उपसंहार -
एरिसयभावणाए ववहारणयस्स होदि चारित्तं ।
णिच्छयणयस्स चरणं एत्तो उड्ढं पवक्खामि ॥76॥
ईद्रग्भावनायां व्यवहारनयस्य भवति चारित्रम् ।
निश्चयनयस्य चरणं एतदूर्ध्वं प्रवक्ष्यामि ॥७६॥
इसतरह की भावना व्यवहार से चारित्र है ।
अब कहूँगा मैं अरे निश्चयनयाश्रित चरण को ॥७६॥
अन्वयार्थ : [ईद्रग्भावनायाम्] ऐसी (पूर्वोक्त) भावना में [व्यवहारनयस्य] व्यवहारनय के अभिप्राय से [चारित्रम्] चारित्र [भवति] है; [निश्चयनयस्य] निश्चयनय के अभिप्राय से [चरणम्] चारित्र [एतदूर्ध्वम्] इसके पश्चात् [प्रवक्ष्यामि] कहूँगा ।
Meaning : From the practical point of view, (all the previously mentioned) meditations constitute Right Conduct; that (which is known) as Right Conduct from the real point of view will be described further on.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
व्यवहारचारित्राधिकारव्याख्यानोपसंहारनिश्चयचारित्रसूचनोपन्यासोऽयम् ।

इत्थंभूतायां प्रागुक्त पंचमहाव्रतपंचसमितिनिश्चयव्यवहारत्रिगुप्तिपंचपरमेष्ठिध्यान-संयुक्तायाम् अतिप्रशस्तशुभभावनायां व्यवहारनयाभिप्रायेण परमचारित्रं भवति, वक्ष्यमाणपंचमाधिकारे परमपंचमभावनिरतपंचमगतिहेतुभूतशुद्धनिश्चयनयात्मपरमचारित्रं द्रष्टव्यं भवतीति ।

तथा चोक्तं मार्गप्रकाशे -
(कलश--वंशस्थ)
कुसूलगर्भस्थितबीजसोदरं
भवेद्विना येन सुद्रष्टिबोधनम् ।
तदेव देवासुरमानवस्तुतं
नमामि जैनं चरणं पुनः पुनः ॥


तथा हि -
(कलश--आर्या)
शीलमपवर्गयोषिदनंगसुखस्यापि मूलमाचार्याः ।
प्राहुर्व्यवहारात्मकवृत्तमपि तस्य परंपरा हेतुः ॥१०७॥


इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव-विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ व्यवहारचारित्राधिकार: चतुर्थः श्रुतस्कन्धः ॥


यह, व्यवहार-चारित्र-अधिकार का जो व्याख्यान उसके उपसंहार का और निश्चयचारित्र की सूचना का कथन है ।

ऐसी जो पूर्वोक्त पंच-महाव्रत, पंच-समिति, निश्चय-व्यवहार त्रिगुप्ति तथा पंच-परमेष्ठी के ध्यान से संयुक्त, अतिप्रशस्त शुभ भावना उसमें व्यवहारनय के अभिप्राय से परम चारित्र है; अब कहे जानेवाले पाँचवें अधिकार में, परम पंचमभाव में लीन, पंचमगति के हेतुभूत, शुद्ध निश्चयनयात्मक परम चारित्र द्रष्टव्य (देखने योग्य) है । इसीप्रकार मार्गप्रकाशक में (श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
कोठार के भीतर पड़े ज्यों बीज उग सकते नहीं ।
बस उसतरह चारित्र बिन दृग-ज्ञान फल सकते नहीं ॥
असुर मानव देव भी थुति करें जिस चारित्र की ।
मैं करूँ वंदन नित्य बारंबार उस चारित्र को ॥२४॥
जिसके बिना (जिस चारित्र के बिना) सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान कोठार के भीतर पड़े हुए बीज (अनाज) समान हैं, उसी देव-असुर-मानव से स्तवन किये गये जैन चरण को (ऐसा जो सुर-असुर-मनुष्यों से स्तवन किया गया जिनोक्त चारित्र उसे) मैं पुनः पुनः नमन करता हूँ ।

और

(कलश--अडिल्ल)
आत्मरमणतारूप चरण ही शील है ।
निश्चय का यह कथन शील शिवमूल है ॥
शुभाचरण मय चरण परम्परा हेतु है ।
सूरिवचन यह सदा धर्म का मूल है ॥१०७॥
आचार्यों ने शील को (निश्चय-चारित्र को) मुक्ति-सुन्दरी के अनंग (अशरीरी) सुख का मूल कहा है; व्यवहारात्मक चारित्र भी उसका परम्परा कारण है ।

इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रंथ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में) व्यवहार-चारित्र अधिकार नाम का चौथा श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ ।