
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आसन्नानासन्नभव्यजीवपूर्वापरपरिणामस्वरूपोपन्यासोऽयम् । मिथ्यात्वाव्रतकषाययोगपरिणामास्सामान्यप्रत्ययाः, तेषां विकल्पास्त्रयोदश भवन्ति 'मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं' इति वचनात्, मिथ्याद्रष्टिगुणस्थानादिसयोगि-गुणस्थानचरमसमयपर्यंतस्थिता इत्यर्थः । अनासन्नभव्यजीवेन निरंजननिजपरमात्मतत्त्वश्रद्धानविकलेन पूर्वं सुचिरं भाविताःखलु सामान्यप्रत्ययाः, तेन स्वरूपविकलेन बहिरात्मजीवेनानासादितपरमनैष्कर्म्य-चरित्रेण सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि न भावितानि भवन्तीति । अस्य मिथ्याद्रष्टे-र्विपरीतगुणनिचयसंपन्नोऽत्यासन्नभव्यजीवः । अस्य सम्यग्ज्ञानभावना कथमितिचेत् - तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः - (कलश--अनुष्टुभ्) भावयामि भवावर्ते भावनाः प्रागभाविताः । भावये भाविता नेति भवाभावाय भावनाः ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) अथ भवजलराशौ मग्नजीवेन पूर्वं किमपि वचनमात्रं निर्वृतेः कारणं यत् । तदपि भवभवेषु श्रूयते वाह्यते वा न च न च बत कष्टं सर्वदा ज्ञानमेकम् ॥१२१॥ यह, आसन्न-भव्य और अनासन्न-भव्य जीव के पूर्वापर (पहले के और बाद के) परिणामों के स्वरूप का कथन है । मिथ्यात्व, अव्रत, कषाय और योगरूप परिणाम सामान्य प्रत्यय (आस्रव) हैं;उनके तेरह भेद हैं, कारण कि 'मिच्छादिट्ठीआदी जाव सजोगिस्स चरमंतं' ऐसा (शास्त्र का) वचन है; मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर सयोगी गुणस्थान के अन्तिम समय तक प्रत्यय होते हैं - ऐसा अर्थ है । निरंजन निज परमात्म तत्त्व के श्रद्धान रहित अनासन्न-भव्य जीव ने वास्तव में सामान्य प्रत्ययों को पहले सुचिर काल भाया है; जिसने परम नैष्कर्म्यरूप चारित्र प्राप्त नहीं किया है ऐसे उस स्वरूप-शून्य बहिरात्म-जीव ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्-चारित्र को नहीं भाया है । इस मिथ्यादृष्टि जीव से विपरीत गुण-समुदायवाला अति-आसन्न भव्य-जीव होता है । इस (अति-निकट भव्य) जीव को सम्यग्ज्ञान की भावना किसप्रकार से होती है ऐसा प्रश्न किया जाये तो (आचार्यवर) श्री गुणभद्रस्वामी ने (आत्मानुशासन में २३८वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--दोहा )
भवावर्त में पहले न भायी हुई भावनाएँ (अब) मैं भाता हूँ । वे भावनाएँ (पहले) न भायी होने से मैं भव के अभाव के लिये उन्हें भाता हूँ (कारण कि भव का अभाव तो भव-भ्रमण के कारणभूत भावनाओं से विरुद्ध प्रकार की, पहले न भायी हुई ऐसी अपूर्व भावनाओं से ही होता है ) ।पहले कभी न भायी जो भवावर्त्त के माँहि । भवाभाव के लिए अब मैं भाता हूँ ताहि ॥३०॥ और - (कलश--हरिगीत)
जो मोक्ष का कुछ कथनमात्र (कहने मात्र) कारण है उसे भी (व्यवहार-रत्नत्रय को भी) भवसागर में डूबे हुए जीव ने पहले भव-भव में (अनेक भवों में) सुना है और आचरा (आचरण में लिया) है; परन्तु अरे रे ! खेद है कि जो सर्वदा एक ज्ञान है उसे (जो सदा एक ज्ञान-स्वरूप ही है ऐसे परमात्म-तत्त्व को) जीव ने सुना-आचरा नहीं है, नहीं है ।
संसार सागर में मगन इस आत्मघाती जीव ने । रे मात्र कहने को धर्म की वार्ता भव-भव सुनी ॥ धारण किया चारित्र किन्तु खेद है इस जीव ने । ज्ञायकस्वभावी आत्मा की बात भी न कभी सुनी ॥१२१॥ |