
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अनन्तचतुष्टयात्मकनिजात्मध्यानोपदेशोपन्यासोयम् । समस्तबाह्यप्रपंचवासनाविनिर्मुक्त स्य निरवशेषेणान्तर्मुखस्य परमतत्त्वज्ञानिनो जीवस्यशिक्षा प्रोक्ता । कथंकारम् ? साद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसद्भूतव्यवहारेण, शुद्धस्पर्शरस-गंधवर्णानामाधारभूतशुद्धपुद्गलपरमाणुवत्केवलज्ञानकेवलदर्शनकेवलसुखकेवलशक्ति युक्त परमात्मा यः सोहमिति भावना कर्तव्या ज्ञानिनेति; निश्चयेन सहजज्ञानस्वरूपोहम्, सहजदर्शन-स्वरूपोहम्, सहजचारित्रस्वरूपोहम्, सहजचिच्छक्ति स्वरूपोहम्, इति भावना कर्तव्या चेति -- तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ - (कलश--अनुष्टुभ्) केवलज्ञानद्रक्सौख्यस्वभावं तत्परं महः । तत्र ज्ञाते न किं ज्ञातं द्रष्टे द्रष्टं श्रुते श्रुतम् ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) जयति स परमात्मा केवलज्ञानमूर्तिः सकलविमलद्रष्टिः शाश्वतानंदरूपः । सहजपरमचिच्छक्त्यात्मकः शाश्वतोयं निखिलमुनिजनानां चित्तपंकेजहंसः ॥१२८॥ यह, अनंतचतुष्टयात्मक निज-आत्मा के ध्यान के उपदेश का कथन है । समस्त बाह्य-प्रपंच की वासना से विमुक्त, निरवशेषरूप से अन्तर्मुख परमतत्त्वज्ञानी जीव को शिक्षा दी गई है । किसप्रकार ? इसप्रकार :- सादि-अनंत अमूर्त अतीन्द्रिय स्वभाववाले शुद्ध सद्भूतव्यवहार से, शुद्ध स्पर्श-रस-गंध-वर्ण के आधारभूत शुद्ध पुद्गल-परमाणु की भाँति, जो केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख तथा केवलशक्ति युक्त परमात्मा सो मैं हूँ, इसप्रकार ज्ञानी को भावना करनी चाहिये; और निश्चय से, मैं सहज ज्ञानस्वरूप हूँ, मैं सहज दर्शनस्वरूप हूँ, मैं सहज चारित्रस्वरूप हूँ तथा मैं सहज चित्शक्तिस्वरूप हूँ इसप्रकार भावना करनी चाहिये । इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत, पद्मनन्दिपञ्चविंशति के एकत्वसप्तति नामक अधिकारमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
वह परम तेज केवलज्ञान, केवलदर्शन और केवलसौख्य स्वभावी है । उसे जानने पर क्या नहीं जाना ? उसे देखने पर क्या नहीं देखा ? उसका श्रवण करने पर क्या नहीं सुना ?केवलदर्शनज्ञानसौख्यमय परमतेज वह । उसे देखते किसे न देखा कहना मुश्किल ॥ उसे जानते किसे न जाना कहना मुश्किल । उसे सुना तो किसे न सुना कहना मुश्किल ॥३५॥ और (कलश--अडिल्ल )
समस्त मुनिजनों के हृदय-कमल का हंस ऐसा जो यह शाश्वत, केवलज्ञान की मूर्तिरूप, सकल-विमल दृष्टिमय (सर्वथा निर्मल दर्शनमय), शाश्वत आनन्दरूप, सहज परम चैतन्य-शक्तिमय परमात्मा वह जयवन्त है ।
मुनिराजों के हृदयकमल का हंस जो । निर्मल जिसकी दृष्टि ज्ञान की मूर्ति जो ॥ सहज परम चैतन्य शक्तिमय जानिये । सुखमय परमातमा सदा जयवंत है ॥१२८॥ |