+ ज्ञानी को शिक्षा -
णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेण्हए केइं ।
जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी ॥97॥
निजभावं नापि मुंचति परभावं नैव गृह्णाति कमपि ।
जानाति पश्यति सर्वं सोहमिति चिंतयेद् ज्ञानी ॥९७॥
निजभावको छोड़े नहीं, किंचित् ग्रहे परभाव नहिं ।
देखे व जाने मैं वही, ज्ञानी करे चिन्तन यही ॥९७॥
अन्वयार्थ : [निजभावं] जो निजभाव को [न अपि मुंचति] नहीं छोड़ता, [कम् अपि परभावं] किंचित् भी परभाव को [न एव गृह्णाति] ग्रहण नहीं करता, [सर्वं] सर्व को [जानाति पश्यति] जानता - देखता है, [सः अहम्] वह मैं हूँ -- [इति] ऐसा [ज्ञानी] ज्ञानी [चिंतयेत्] चिंतवन करता है ।
Meaning :  That, which never gives up its own nature and never assumes any aspect of another's nature ; but knows and perceives all, is " I," A right knower should realise himself as such.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र परमभावनाभिमुखस्य ज्ञानिनः शिक्षणमुक्तम् ।
यस्तु कारणपरमात्मा सकलदुरितवीरवैरिसेनाविजयवैजयन्तीलुंटाकं त्रिकाल-निरावरणनिरंजननिजपरमभावं क्वचिदपि नापि मुंचति, पंचविधसंसारप्रवृद्धिकारणं विभावपुद्गलद्रव्यसंयोगसंजातं रागादिपरभावं नैव गृह्णाति, निश्चयेन निजनिरावरणपरम-बोधेन निरंजनसहजज्ञानसहजद्रष्टिसहजशीलादिस्वभावधर्माणामाधाराधेयविकल्पनिर्मुक्त मपिसदामुक्तं सहजमुक्ति भामिनीसंभोगसंभवपरतानिलयं कारणपरमात्मानं जानाति, तथाविध-सहजावलोकेन पश्यति च, स च कारणसमयसारोहमिति भावना सदा कर्तव्या सम्यग्ज्ञानिभिरिति ।तथा चोक्तं श्रीपूज्यपादस्वामिभिः —

(कलश--अनुष्टुभ्)
यदग्राह्यं न गृह्णाति गृहीतं नापि मुंचति ।
जानाति सर्वथा सर्वं तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् ॥


तथा हि —
(कलश--वसंततिलका)
आत्मानमात्मनि निजात्मगुणाढयमात्मा
जानाति पश्यति च पंचमभावमेकम् ।
तत्याज नैव सहजं परभावमन्यं
गृह्णाति नैव खलु पौद्गलिकं विकारम् ॥१२९॥
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
मत्स्वान्तं मयि लग्नमेतदनिशं चिन्मात्रचिंतामणा-
वन्यद्रव्यकृताग्रहोद्भवमिमं मुक्त्वाधुना विग्रहम् ।
तच्चित्रं न विशुद्धपूर्णसहजज्ञानात्मने शर्मणे
देवानाममृताशनोद्भवरुचिं ज्ञात्वा किमन्याशने ॥१३०॥
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
निर्द्वन्द्वं निरुपद्रवं निरुपमं नित्यं निजात्मोद्भवं
नान्यद्रव्यविभावनोद्भवमिदं शर्मामृतं निर्मलम् ।
पीत्वा यः सुकृतात्मकः सुकृतमप्येतद्विहायाधुना
प्राप्नोति स्फुटमद्वितीयमतुलं चिन्मात्रचिंतामणिम् ॥१३१॥
(कलश--आर्या)
को नाम वक्ति विद्वान् मम च परद्रव्यमेतदेव स्यात् ।
निजमहिमानं जानन् गुरुचरणसमर्च्चनासमुद्भूतम् ॥१३२॥



यहाँ, परम भावना के सम्मुख ऐसे ज्ञानी को शिक्षा दी है ।

जो कारण-परमात्मा
  1. समस्त पापरूपी बहादुर शत्रु-सेना की विजय-ध्वजा को लूटनेवाले, त्रिकाल-निरावरण, निरंजन, निज परमभाव को कभी नहीं छोड़ता;
  2. पंचविध (पाँच परावर्तनरूप) संसार की वृद्धि के कारणभूत, विभाव-पुद्गल-द्रव्य के संयोग से जनित रागादि परभाव को ग्रहण नहीं करता; और
  3. निरंजन सहजज्ञान - सहजदृष्टि - सहजचारित्रादि स्वभाव-धर्मों के आधार-आधेय सम्बन्धी विकल्पों रहित, सदा मुक्त तथा सहज मुक्तिरूपी स्त्री के संभोग से उत्पन्न होनेवाले सौख्य के स्थानभूत - ऐसे कारण-परमात्मा को निश्चय से निज-निरावरण परमज्ञान द्वारा जानता है और उस प्रकार के सहज अवलोकन द्वारा (सहज निज-निरावरण परमदर्शन द्वारा) देखता है;
वह कारण-समयसार मैं हूँ — ऐसी सम्यग्ज्ञानियों को सदा भावना करना चाहिये ।

इसीप्रकार श्री पूज्यपादस्वामी ने (समाधितंत्रमें २०वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--हरिगीत)
जो गृहीत को छोड़े नहीं पर न ग्रहे अग्राह्य को ।
जाने सभी को मैं वही है स्वानुभूति गम्य जो ॥३६॥
जो अग्राह्य को (ग्रहण न करने योग्य को) ग्रहण नहीं करता तथा गृहीत को (ग्राह्य को, शाश्वत स्वभाव को) छोड़ता नहीं है, सर्व को सर्व प्रकार से जानता है, वह स्वसंवेद्य (तत्त्व) मैं हूँ ।

और -

(कलश--हरिगीत)
आतमा में आतमा को जानता है देखता ।
बस एक पंचमभाव है जो नंतगुणमय आतमा ॥
उस आतमा ने आजतक छोड़ा न पंचमभाव को ।
और जो न ग्रहण करता पुद्गलिक परभाव को ॥१२९॥
आत्मा आत्मा में निज आत्मिक गुणों से समृद्ध आत्मा को - एक पंचमभाव को - जानता है और देखता है; उस सहज एक पंचम-भाव को उसने छोड़ा नहीं ही है तथा अन्य ऐसे परभाव को, कि जो वास्तव में पौद्गलिक विकार है उसे, वह ग्रहण नहीं ही करता ।

(कलश--रोला)
अन्य द्रव्य के आग्रह से जो पैदा होता ।
उस तन को तज पूर्ण सहज ज्ञानात्मक सुख की ॥
प्राप्ति हेतु नित लगा हुआ है निज आतम में ।
अमृतभोजी देव लगे क्यों अन्य असन में ॥१३०॥
अन्य द्रव्य का आग्रह करने से उत्पन्न होनेवाले इस विग्रह कोअब छोड़कर, विशुद्ध - पूर्ण - सहजज्ञानात्मक सौख्य की प्राप्ति के हेतु, मेरा यह निज अन्तर मुझमें — चैतन्यमात्र - चिंतामणि में निरन्तर लगा है — उसमें आश्चर्य नहीं है, कारण कि अमृत भोजन जनित स्वाद को जानकर देवों को अन्य भोजन से क्या प्रयोजन है ? (जिस प्रकार अमृत भोजन के स्वाद को जानकर देवों का मन अन्य भोजन में नहीं लगता, उसीप्रकार ज्ञानात्मक सौख्य को जानकर हमारा मन उस सौख्य के निधान चैतन्यमात्र-चिन्तामणि के अतिरिक्त अन्य कहीं नहीं लगता ।)

(कलश--रोला)
अन्य द्रव्य के कारण से उत्पन्न नहीं जो ।
निज आतम के आश्रय से जो पैदा होता ॥
उस अमृतमय सुख को पी जो सुकृत छोड़े ।
प्रगटरूप से वे चित् चिन्तामणि को पावें ॥१३१॥
द्वन्द्व रहित, उपद्रव रहित, उपमा रहित, नित्य, निज आत्मा से उत्पन्न होनेवाले, अन्य द्रव्य की विभावना से (अन्य द्रव्यों सम्बन्धी विकल्प करने से) उत्पन्न न होनेवाले, ऐसे इस निर्मल सुखामृत को पीकर (उस सुखामृत के स्वाद के पास सुकृत भी दुःखरूप लगने से), जो जीव सुकृतात्मक है वह अब इस सुकृत को भी छोड़कर अद्वितीय अतुल चैतन्यमात्र - चिन्तामणि को स्फुटरूप (प्रगटरूप) से प्राप्त करता है ।

(कलश--दोहा)
गुरुचरणों की भक्ति से जाने निज माहात्म्य ।
ऐसा बुध कैसे कहे मेरा यह परद्रव्य ॥१३२॥
गुरुचरणों के समर्चन से उत्पन्न हुई निज-महिमा को जाननेवाला कौन विद्वान 'यह परद्रव्य मेरा है' ऐसा कहेगा ? ।

- रागादिपरभावकी उत्पत्तिमें पुद्गलकर्म निमित्त बनता है ।
– कारणपरमात्मा ‘स्वयं आधार है और स्वभावधर्म आधेय हैं ’ ऐसे विकल्पोंसे रहित है, सदा मुक्त है और मुक्तिसुखका आवास है ।
– आग्रह = पकड़; ग्रहण; लगे रहना वह ।
– विग्रह = (१) रागद्वेषादि कलह; (२) शरीर ।
– सुकृतात्मक = सुकृतवाला; शुभकृत्यवाला; पुण्यकर्मवाला; शुभ भाववाला ।
– समर्चन = सम्यक् अर्चन; सम्यक् पूजन; सम्यक् भक्ति ।