
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र बन्धनिर्मुक्त मात्मानं भावयेदिति भव्यस्य शिक्षणमुक्तम् । शुभाशुभमनोवाक्कायकर्मभिः प्रकृतिप्रदेशबंधौ स्याताम्; चतुर्भिः कषायैःस्थित्यनुभागबन्धौ स्तः; एभिश्चतुर्भिर्बन्धैर्निर्मुक्त : सदानिरुपाधिस्वरूपो ह्यात्मा सोहमिति सम्यग्ज्ञानिना निरन्तरं भावना कर्तव्येति । (कलश--मंदाक्रांता) प्रेक्षावद्भिः सहजपरमानंदचिद्रूपमेकं संग्राह्यं तैर्निरुपममिदं मुक्ति साम्राज्यमूलम् । तस्मादुच्चैस्त्वमपि च सखे मद्वचःसारमस्मिन् श्रुत्वा शीघ्रं कुरु तव मतिं चिच्चमत्कारमात्रे ॥१३३॥ यहाँ (इस गाथा में), बन्ध-रहित आत्मा भाना चाहिये - इस प्रकार भव्य को शिक्षा दी है । शुभाशुभ मन-वचन-काय सम्बन्धी कर्मों से प्रकृति-बन्ध और प्रदेश-बन्ध होता है; चार कषायों से स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्ध होता है; इन चार बन्धों रहित सदा निरुपाधि-स्वरूप जो आत्मा सो मैं हूँ - ऐसी सम्यग्ज्ञानी को निरन्तर भावना करनी चाहिये । (कलश--हरिगीत)
जो मुक्ति-साम्राज्य का मूल है ऐसे इस निरुपम, सहज परमानन्दवाले चिद्रूप को (चैतन्य के स्वरूप को) एक को बुद्धिमान पुरुषों को सम्यक् प्रकार से ग्रहण करना योग्य है; इसलिये, हे मित्र ! तू भी मेरे उपदेश के सार को सुनकर, तुरन्त ही उग्ररूप से इस चैतन्य-चमत्कार मात्र के प्रति अपनी वृत्ति कर ।
जो मूल शिव साम्राज्य परमानन्दमय चिद्रूप है । बस ग्रहण करना योग्य है इस एक अनुपम भाव को ॥ इसलिए हे मित्र सुन मेरे वचन के सार को । इसमें रमो अति उग्र हो आनन्द अपरम्पार हो ॥१३३॥ |