
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र सकलविभावसंन्यासविधिः प्रोक्त : । कमनीयकामिनीकांचनप्रभृतिसमस्तपरद्रव्यगुणपर्यायेषु ममकारं संत्यजामि । परमो-पेक्षालक्षणलक्षिते निर्ममकारात्मनि आत्मनि स्थित्वा ह्यात्मानमवलम्ब्य च संसृतिपुरंध्रिकासंभोगसंभवसुखदुःखाद्यनेकविभावपरिणतिं परिहरामि । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः - (शिखरिणी) निषिद्धे सर्वस्मिन् सुकृतदुरिते कर्मणि किल प्रवृत्ते नैष्कर्म्ये न खलु मुनयः संत्यशरणाः । तदा ज्ञाने ज्ञानं प्रतिचरितमेषां हि शरणं स्वयं विंदंत्येते परमममृतं तत्र निरताः ॥ तथा हि - (कलश--मालिनी) अथ नियतमनोवाक्कायकृत्स्नेन्द्रियेच्छो भववनधिसमुत्थं मोहयादःसमूहम् । कनकयुवतिवांच्छामप्यहं सर्वशक्त्या प्रबलतरविशुद्धध्यानमय्या त्यजामि ॥१३४॥ यहाँ सकल विभाव के संन्यास (त्याग) की विधि कही है । सुन्दर कामिनी, कांचन (स्वर्ण) आदि समस्त परद्रव्य - गुण - पर्यायों के प्रति ममकार को मैं छोड़ता हूँ । परमोपेक्षा-लक्षण से लक्षित निर्ममकारात्मक (निर्ममत्वमय) आत्मा में स्थित रहकर तथा आत्मा का अवलम्बन लेकर, संसृतिरूपी (संसाररूप) स्त्री के संभोग से उत्पन्न सुख-दुःखादि अनेक विभावरूप परिणति को मैं परिहरता हूँ । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसारकी आत्मख्याति नामक टीका में १०४वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--रोला)
शुभ आचरणरूप कर्म और अशुभ आचरणरूप कर्म -- ऐसे समस्त कर्मों का निषेध किया जाने पर और इसप्रकार निष्कर्म अवस्था वर्तने पर, मुनि कहीं अशरण नहीं है; (कारण कि) जब निष्कर्म (निवृत्ति) अवस्था वर्तती है तब ज्ञान में आचरण / रमण / परिणमन करता हुआ ज्ञान ही उन मुनियों को शरण है; वे उस ज्ञान में लीन होते हुए परम अमृत का स्वयं अनुभवन (आस्वादन) करते हैं ।सभी शुभाशुभभावों के निषेध होने से । अशरण होंगे नहीं रमेंगे निज स्वभाव में ॥ अरे मुनीश्वर तो निशदिन निज में ही रहते । निजानन्द के परमामृत में ही नित रमते ॥३७॥ और (कलश--हरिगीत)
मन-वचन-काया सम्बन्धी और समस्त इन्द्रियों सम्बन्धी इच्छा का जिसने नियंत्रण किया है ऐसा मैं अब भवसागर में उत्पन्न होनेवाले मोहरूपी जलचर प्राणियों के समूह को तथा कनक और युवती की वांछा को अतिप्रबल-विशुद्ध-ध्यानमयी सर्व शक्ति से छोड़ता हूँ ।
मन-वचन-तन व इंद्रियों की वासना का दमक मैं । भव उदधि संभव मोह जलचर और कंचन कामिनी॥ की चाह को मैं ध्यानबल से चाहता हूँ छोड़ना । निज आतमा में आतमा को चाहता हूँ जोड़ना ॥१३४॥ |