+ सर्वत्र आत्मा उपादेय है -
आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दंसणे चरित्ते य ।
आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे ॥100॥
आत्मा खलु मम ज्ञाने आत्मा मे दर्शने चरित्रे च ।
आत्मा प्रत्याख्याने आत्मा मे संवरे योगे ॥१००॥
मम ज्ञान में है आतमा, दर्शन चरित में आतमा ।
है और प्रत्याख्यान, संवर, योग में भी आतमा ॥१००॥
अन्वयार्थ : [खलु] वास्तव में [मम ज्ञाने] मेरे ज्ञान में [आत्मा] आत्मा है, [मे दर्शने] मेरे दर्शन में [च] तथा [चरित्रे] चारित्र में [आत्मा] आत्मा है, [प्रत्याख्याने] मेरे प्रत्याख्यान में [आत्मा] आत्मा है, [मे संवरे योगे] मेरे संवर में तथा योग में (शुद्धोपयोग में) [आत्मा] आत्मा है ।
Meaning : Soul only (is) in my knowledge, soul (only) is in (my) belief and conduct, soul only (is) in (my) renunciation and soul (only is) in the stoppage of karmas and in pure, conscious-attentiveness. (A right knower should realise him. self as such).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र सर्वत्रात्मोपादेय इत्युक्त : ।

अनाद्यनिधनामूर्तातीन्द्रियस्वभावशुद्धसहजसौख्यात्मा ह्यात्मा । स खलु सहज-शुद्धज्ञानचेतनापरिणतस्य मम सम्यग्ज्ञाने च, स च प्रांचितपरमपंचमगतिप्राप्तिहेतुभूतपंचम-भावभावनापरिणतस्य मम सहजसम्यग्दर्शनविषये च, साक्षान्निर्वाणप्राप्त्युपायस्वस्वरूपाविचल-
स्थितिरूपसहजपरमचारित्रपरिणतेर्मम सहजचारित्रेऽपि स परमात्मा सदा संनिहितश्च, स चात्मा सदासन्नस्थः शुभाशुभपुण्यपापसुखदुःखानां षण्णां सकलसंन्यासात्मकनिश्चयप्रत्याख्याने च मम भेदविज्ञानिनः परद्रव्यपराङ्मुखस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहस्य, मम सहज-
वैराग्यप्रासादशिखरशिखामणेः स्वरूपगुप्तस्य पापाटवीपावकस्य शुभाशुभसंवरयोश्च, अशुभोपयोगपराङ्मुखस्य शुभोपयोगेऽप्युदासीनपरस्य साक्षाच्छुद्धोपयोगाभिमुखस्य मम परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभस्य शुद्धोपयोगेऽपि च स परमात्मा सनातनस्वभावत्वात्तिष्ठति ।
तथा चोक्त मेकत्वसप्ततौ -
(कलश--अनुष्टुभ्)
तदेकं परमं ज्ञानं तदेकं शुचि दर्शनम् ।
चारित्रं च तदेकं स्यात् तदेकं निर्मलं तपः ॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
नमस्यं च तदेवैकं तदेवैकं च मंगलम् ।
उत्तमं च तदेवैकं तदेव शरणं सताम् ॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
आचारश्च तदेवैकं तदेवावश्यकक्रिया ।
स्वाध्यायस्तु तदेवैकमप्रमत्तस्य योगिनः ॥

तथा हि —
(कलश--मालिनी)
मम सहजसुद्रष्टौ शुद्धबोधे चरित्रे
सुकृतदुरितकर्मद्वन्दसंन्यासकाले ।
भवति स परमात्मा संवरे शुद्धयोगे
न च न च भुवि कोऽप्यन्योस्ति मुक्त्यै पदार्थः ॥१३५॥
(कलश--पृथ्वी)
क्वचिल्लसति निर्मलं क्वचन निर्मलानिर्मलं
क्वचित्पुनरनिर्मलं गहनमेवमज्ञस्य यत् ।
तदेव निजबोधदीपनिहताघभूछायकं
सतां हृदयपद्मसद्मनि च संस्थितं निश्चलम् ॥१३६॥



यहाँ (इस गाथा में), सर्वत्र आत्मा उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है ऐसा कहा है ।

आत्मा वास्तव में अनादि-अनन्त, अमूर्त, अतीन्द्रिय स्वभाववाला, शुद्ध, सहज-सौख्यात्मक है ।
  • सहज शुद्ध ज्ञान-चेतनारूप से परिणमित जो मैं उसके (मेरे) सम्यग्ज्ञान में सचमुच वह (आत्मा) है;
  • पूजित परम पंचमगति की प्राप्ति के हेतुभूत पंचमभाव की भावनारूप से परिणमित जो मैं उसके सहज सम्यग्दर्शन विषय में (मेरे सहज सम्यग्दर्शन में) वह (आत्मा) है;
  • साक्षात् निर्वाण प्राप्ति के उपायभूत, निज-स्वरूप में अविचल स्थितिरूप सहज-परमचारित्र परिणतिवाला जो मैं उसके (मेरे) सहज चारित्र में भी वह परमात्मा सदा संनिहित (निकट) है;
  • भेद-विज्ञानी, पर-द्रव्य से पराङ्मुख तथा पंचेन्द्रिय के विस्तार रहित देह-मात्र परिग्रहवाला जो मैं उसके निश्चय प्रत्याख्यान में, कि जो (निश्चय-प्रत्याख्यान) शुभ, अशुभ, पुण्य, पाप, सुख और दुःख इन छह के सकल-संन्यास स्वरूप है (इन छह वस्तुओं के सम्पूर्ण त्याग-स्वरूप है) उसमें, वह आत्मा सदा आसन्न (निकट) विद्यमान है;
  • सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर का शिखामणि, स्वरूप-गुप्त और पापरूपी अटवी को जलाने के लिये पावक समान जो मैं उसके शुभाशुभ संवर में (वह परमात्मा है), तथा अशुभोपयोग से पराङ्मुख, शुभोपयोग के प्रति भी उदासीनतावाला और साक्षात् शुद्धोपयोग के सम्मुख जो मैं, परमागमरूपी पुष्परस जिसके मुख से झरता है ऐसा पद्मप्रभ, उसके शुद्धोपयोग में भी वह परमात्मा विद्यमान है
कारण कि वह (परमात्मा) सनातन स्वभाववाला है ।

इसीप्रकार एकत्व सप्तति में (श्री पद्मनन्दि-आचार्यवरकृत पद्मनन्दिपञ्चविंशतिका के एकत्वसप्तति नामक अधिकार में ३९, ४० तथा ४१वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
वही एक मेरे लिए परमज्ञान चारित्र ।
पावन दर्शन तप वही निर्मल परम पवित्र ॥३८॥
सत्पुरुषों के लिए वह एकमात्र संयोग ।
मंगल उत्तम शरण अर नमस्कार के योग्य ॥३९॥
योगी जो अप्रमत्त हैं उन्हें एक आचार ।
स्वाध्याय भी है वही आवश्यक व्यवहार ॥४०॥
वही एक (वह चैतन्यज्योति ही एक) परम ज्ञान है, वही एक पवित्र दर्शन है, वही एक चारित्र है तथा वही एक निर्मल तप है । सत्पुरुषों को वही एक नमस्कार योग्य है, वही एक मंगल है, वही एक उत्तम है तथा वही एक शरण है । अप्रमत्त योगी को वही एक आचार है, वही एक आवश्यक क्रिया है तथा वही एक स्वाध्याय है ।

और

(कलश--हरिगीत)
इक आतमा ही बस रहा मम सहज दर्शन-ज्ञान में ।
संवर में शुध उपयोग में चारित्र प्रत्याख्यान में ॥
दुष्कर्म अर सत्कर्म - इन सब कर्म के संन्यास में ।
मुक्ति पाने के लिए अन कोई साधन है नहीं ॥१३५॥
मेरे सहज सम्यग्दर्शन में, शुद्ध ज्ञान में, चारित्र में, सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म-द्वंद्व के संन्यासकाल में (प्रत्याख्यान में), संवर में और शुद्ध योग में (शुद्धोपयोग में) वह परमात्मा ही है (सम्यग्दर्शनादि सभी का आश्रय / अवलम्बन शुद्धात्मा ही है); मुक्ति की प्राप्ति के लिये जगत में अन्य कोई भी पदार्थ नहीं है, नहीं है ।

(कलश--भुजंगप्रयात)
किया नष्ट जिसने है अघतिमिर को,
रहता सदा जो सत्पुरुष के हृदय में ।
कभी विज्ञजन को निर्मल अनिर्मल,
निर्मल-अनिर्मल देता दिखाई ॥
जो नष्ट करता है अघ तिमिर को,
वह ज्ञानदीपक भगवान आतम ।
अज्ञानियों के लिए तो गहन है,
पर ज्ञानियों को देता दिखाई ॥१३६॥
जो कभी निर्मल दिखाई देता है, कभी निर्मल तथा अनिर्मल दिखाई देता है, तथा कभी अनिर्मल दिखाई देता है और इससे अज्ञानी के लिये जो गहन है, वही, कि जिसने निजज्ञानरूपी दीपक से पाप-तिमिर को नष्ट किया है वह (आत्मतत्त्व) ही सत्पुरुषों के हृदय-कमलरूपी घर में निश्चलरूप से संस्थित है ।