
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
निश्चयप्रत्याख्यानाध्यायोपसंहारोपन्यासोयम् । यः श्रीमदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतपरमागमार्थविचारक्षमः अशुद्धान्तस्तत्त्वकर्मपुद्गलयो-रनादिबन्धनसंबन्धयोर्भेदं भेदाभ्यासबलेन करोति, स परमसंयमी निश्चयव्यवहारप्रत्याख्यानं स्वीकरोतीति । (कलश--स्वागता) भाविकालभवभावनिवृत्तः सोहमित्यनुदिनं मुनिनाथः । भावयेदखिलसौख्यनिधानं स्वस्वरूपममलं मलमुक्त्यै ॥१४३॥ (कलश--स्वागता) घोरसंसृतिमहार्णवभास्व- द्यानपात्रमिदमाह जिनेन्द्रः । तत्त्वतः परमतत्त्वमजस्रं भावयाम्यहमतो जितमोहः ॥१४४॥ (कलश--मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानं भवति सततं शुद्धचारित्रमूर्तेः भ्रान्तिध्वंसात्सहजपरमानंदचिन्निष्टबुद्धेः । नास्त्यन्येषामपरसमये योगिनामास्पदानां भूयो भूयो भवति भविनां संसृतिर्घोररूपा ॥१४५॥ (कलश--शिखरिणी) महानंदानंदो जगति विदितः शाश्वतमयः । स सिद्धात्मन्युच्चैर्नियतवसतिर्निर्मलगुणे । अमी विद्वान्सोपि स्मरनिशितशस्त्रैरभिहताः कथं कांक्षंत्येनं बत कलिहतास्ते जडधियः ॥१४६॥ (कलश--मंदाक्रांता) प्रत्याख्यानाद्भवति यमिषु प्रस्फुटं शुद्धशुद्धं सच्चारित्रं दुरघतरुसांद्राटवीवह्निरूपम् । तत्त्वं शीघ्रं कुरु तव मतौ भव्यशार्दूल नित्यं यत्किंभूतं सहजसुखदं शीलमूलं मुनीनाम् ॥१४७॥ (कलश--मालिनी) जयति सहजतत्त्वं तत्त्वनिष्णातबुद्धेः हृदयसरसिजाताभ्यन्तरे संस्थितं यत् । तदपि सहजतेजः प्रास्तमोहान्धकारं स्वरसविसरभास्वद्बोधविस्फूर्तिमात्रम् ॥१४८॥ (कलश--पृथ्वी) अखंडितमनारतं सकलदोषदूरं परं भवांबुनिधिमग्नजीवततियानपात्रोपमम् । अथ प्रबलदुर्गवर्गदववह्निकीलालकं नमामि सततं पुनः सहजमेव तत्त्वं मुदा ॥१४९॥ (कलश--पृथ्वी) जिनप्रभुमुखारविन्दविदितं स्वरूपस्थितं मुनीश्वरमनोगृहान्तरसुरत्नदीपप्रभम् । नमस्यमिह योगिभिर्विजितद्रष्टिमोहादिभिः नमामि सुखमन्दिरं सहजतत्त्वमुच्चैरदः ॥१५०॥ (कलश--पृथ्वी) प्रणष्टदुरितोत्करं प्रहतपुण्यकर्मव्रजं प्रधूतमदनादिकं प्रबलबोधसौधालयम् । प्रणामकृततत्त्ववित् प्रकरणप्रणाशात्मकं प्रवृद्धगुणमंदिरं प्रहृतमोहरात्रिं नुमः ॥१५१॥ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेव - विरचितायां नियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ निश्चयप्रत्याख्यानाधिकारः षष्ठः श्रुतस्कन्धः ॥ यह, निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार के उपसंहार का कथन है । श्रीमद् अर्हंत के मुखारविंद से निकले हुए परमागम के अर्थ का विचार करने में समर्थ, ऐसा जो परम संयमी अनादि बन्धनरूप सम्बन्धवाले अशुद्ध अन्तःतत्त्व और कर्म-पुद्गल का भेद भेदाभ्यास के बल से करता है, वह परम संयमी निश्चय-प्रत्याख्यान तथा व्यवहार प्रत्याख्यान को स्वीकृत (अंगीकृत) करता है । (कलश--रोला)
'जो भावि-काल के भव-भावों (संसारभावों) से निवृत्त है वह मैं हूँ' इसप्रकार मुनिश्वर को मल से मुक्त होने के लिये परिपूर्ण सौख्य के निधानभूत निर्मल निज स्वरूप को प्रतिदिन भाना चाहिये ।भाविकाल के भावों से तो मैं निवृत्त हूँ । इसप्रकार के भावों को तुम नित प्रति भावो ॥ निज स्वरूप जो सुख निधान उसको हे भाई! यदि छूटना कर्मफलों से प्रतिदिन भावो ॥१४३॥ (कलश--रोला)
घोर संसार महार्णव की यह (परम तत्त्व) दैदीप्यमान नौका है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है; इसलिये मैं मोह को जीतकर निरन्तर परम तत्त्व को तत्त्वतः (पारमार्थिक रीति से) भाता हूँ ।परमतत्त्व तो अरे भयंकर भव सागर की । नौका है - यह बात कही है परमेश्वर ने ॥ इसीलिए तो मैं भाता हूँ परमतत्त्व को । अरे निरन्तर अन्तरतम से भक्तिभाव से ॥१४४॥ (कलश--रोला)
भ्रान्ति के नाश से जिसकी बुद्धि सहज-परमानन्दयुक्त चेतन में निष्ठित (लीन, एकाग्र) है ऐसे शुद्ध चारित्र मूर्ति को सतत प्रत्याख्यान है । परसमय (अन्य दर्शन) में जिनका स्थान है ऐसे अन्य योगियों को प्रत्याख्यान नहीं होता; उन संसारियों को पुनःपुनः घोर संसरण (परिभ्रमण) होता है ।भ्रान्ति नाश से जिनकी मति चैतन्यतत्त्व में । निष्ठित है वे संत निरंतर प्रत्याख्यान में ॥ अन्य मतों में जिनकी निष्ठा वे योगीजन । भ्रमे घोर संसार नहीं वे प्रत्याख्यान में ॥१४५॥ (कलश--रोला)
जो शाश्वत महा आनन्दानन्द जगत में प्रसिद्ध है, वह निर्मल गुणवाले सिद्धात्मा में अतिशयरूप से तथा नियतरूप से रहता है । (तो फिर,) अरे रे ! यह जड़बुद्धि विद्वान भी काम के तीक्ष्ण शस्त्रों से घायल होते हुए क्लेश पीड़ित होकर उसकी (काम की) इच्छा क्यों करते हैं ?जो शाश्वत आनंद जगतजन में प्रसिद्ध है । वह रहता है सदा अनूपम सिद्ध पुरुष में ॥ ऐसी थिति में जड़बुद्धि बुधजन क्यों रे रे । कामबाण से घायल हो उसको ही चाहें ?॥१४६॥ (कलश--रोला)
जो दुष्ट पापरूपी वृक्षों की घनी अटवी को जलाने के लिये अग्निरूप है ऐसा प्रगट शुद्ध-शुद्ध सत्चारित्र संयमियों को प्रत्याख्यान से होता है; (इसलिये) हे भव्यशार्दूल ! (भव्योत्तम !) तू शीघ्र अपनी मति में तत्त्व को नित्य धारण कर, कि जो तत्त्व सहज-सुख का देनेवाला तथा मुनियों के चारित्र का मूल है ।अघ वृक्षों की अटवी को वह्नि समान है । ऐसा सत् चारित्र सदा है प्रत्यखान में ॥ इसीलिए हे भव्य स्वयं की बुद्धि को तू । आत्मतत्त्व में लगा सहज सुख देने वाले ॥१४७॥ (कलश--रोला)
तत्त्व में निष्णात बुद्धिवाले जीव के हृदयकमलरूप अभ्यंतर में जो सुस्थित है, वह सहज तत्त्व जयवन्त है । उस सहज तेज ने मोहान्धकार का नाश किया है और वह (सहज तेज) निज-रस के विस्तार से प्रकाशित ज्ञान के प्रकाशनमात्र है ।जो सुस्थित है धीमानों के हृदय कमल में । अर जिसने मोहान्धकार का नाश किया है ॥ सहजतत्त्व निज के प्रकाश से ज्योतित होकर । अरे प्रकाशन मात्र और जयवंत सदा है ॥१४८॥ (कलश--रोला)
और, जो (सहज तत्त्व) अखण्डित है, शाश्वत है, सकल-दोष से दूर है, उत्कृष्ट है, भवसागर में डूबे हुए जीव-समूह को नौका समान है तथा प्रबल संकटों के समूहरूपी दावानल को (शांत करने के लिये) जल समान है, उस सहज तत्त्व को मैं प्रमोद से सतत नमस्कार करता हूँ ।सकल दोष से दूर अखण्डित शाश्वत है जो । भवसागर में डूबों को नौका समान है ॥ संकटरूपी दावानल को जल समान जो । भक्तिभाव से नमस्कार उस सहजतत्त्व को ॥१४९॥ (कलश--रोला)
जो जिनप्रभु के मुखारविंद से विदित (प्रसिद्ध) है, जो स्वरूप में स्थित है, जो मुनीश्वरों के मनोगृह के भीतर सुन्दर रत्नदीप की भाँति प्रकाशित है, जो इस लोक में दर्शनमोहादि पर विजय प्राप्त किये हुए योगियों से नमस्कार करने योग्य है तथा जो सुख का मन्दिर है, उस सहज तत्त्व को मैं सदा अत्यन्त नमस्कार करता हूँ ।जिनमुख से है विदित और थित है स्वरूप में । रत्नदीप सा जगमगात है मुनिमन घट में ॥ मोहकर्म विजयी मुनिवर से नमन योग्य है । उस सुखमंदिर सहजतत्त्व को मेरा वंदन ॥१५०॥ (कलश--रोला)
जिसने पाप की राशि को नष्ट किया है, जिसने पुण्यकर्म के समूह को हना है, जिसने मदन (काम) आदि को झाड़ दिया है, जो प्रबल ज्ञान का महल है, जिसको तत्त्ववेत्ता प्रणाम करते हैं, जो प्रकरण के नाशस्वरूप है (जिसे कोई कार्य करना शेष नहीं है, कृतकृत्य), जो पुष्ट गुणों का धाम है तथा जिसने मोह-रात्रि का नाश किया है, उसे (उस सहज तत्त्व को) हम नमस्कार करते हैं ।पुण्य-पाप को नाश काम को खिरा दिया है । महल ज्ञान का अरे काम ना शेष रहा है ॥ पुष्ट गुणों का धाम मोह रजनी का नाशक । तत्त्ववेदिजन नमें उसी को हम भी नमते ॥१५१॥ इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेवप्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेव विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) निश्चय-प्रत्याख्यान अधिकार नाम का छठवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ । |