+ निश्चय-आलोचना का स्वरूप -
णोकम्मकम्मरहियं विहावगुणपज्जएहिं वदिरित्तं ।
अप्पाणं जो झायदि समणस्सालोयणं होदि ॥107॥
नोकर्मकर्मरहितं विभावगुणपर्ययैर्व्यतिरिक्तम् ।
आत्मानं यो ध्यायति श्रमणस्यालोचना भवति ॥१०७॥
नोकर्म, कर्म, विभाव, गुण पर्याय विरहित आतमा ।
ध्याता उसे, उस श्रमणको होती परम-आलोचना ॥१०७॥
अन्वयार्थ : [नोकर्मकर्मरहितं] नोकर्म और कर्म से रहित तथा [विभावगुणपर्ययैः व्यतिरिक्तम्] विभाव गुण-पर्यायों से व्यतिरिक्त [आत्मानं] आत्माको[यः] जो [ध्यायति] ध्याता है, [श्रमणस्य] उस श्रमण को [आलोचना] आलोचना [भवति] है ।
Meaning : A saint, who meditates upon soul as free from quasi-karmic matter (No-Karma), and karmic matter, and devoid of non-natural attributes and modifications, (is said) to huve 'confession' (Alochana.)

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आलोचनाधिकार उच्यते -

निश्चयालोचनास्वरूपाख्यानमेतत् ।औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि, ज्ञानदर्शनावरणांतरायमोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यकर्माणि । कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ता-ग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्त म् । मतिज्ञानादयोविभावगुणा नरनारकादिव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः । सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाश्च । एभिः समस्तैः व्यतिरिक्तं , स्वभावगुणपर्यायैः संयुक्तं, त्रिकालनिरावरणनिरंजन-परमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंच-पराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति ।
तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः -
(कलश--आर्या)
मोहविलासविजृंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य ।
आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥


उक्तं चोपासकाध्ययने -
(कलश--आर्या)
आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् ।
आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥


तथा हि -
(कलश)
आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं
शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे ।
पश्चादुच्चैः प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां
नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि ॥१५२॥



अब आलोचना अधिकार कहा जाता है ।

यह, निश्चय-आलोचना के स्वरूप का कथन है ।

औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वे नोकर्म हैं; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नाम के द्रव्यकर्म हैं । कर्मोपाधि-निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से परमात्मा इन नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित है । मतिज्ञानादिक वे विभावगुण हैं और नर-नारकादि व्यंजन पर्यायें ही विभाव पर्यायें हैं; गुण सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमभावी होती हैं । परमात्मा इन सबसे (विभाव गुणों तथा विभाव पर्यायों से) व्यतिरिक्त है । उपरोक्त नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित तथा उपरोक्त समस्त विभाव गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त तथा स्वभाव गुण पर्यायों से संयुक्त, त्रिकाल-निरावरण निरंजन परमात्मा को त्रिगुप्तिगुप्त (तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी) परम-समाधि द्वारा जो परम श्रमण सदा अनुष्ठान समय में वचन-रचना के प्रपंच से (विस्तार से) पराङ्मुख वर्तता हुआ ध्याता है, उस भाव-श्रमण को सतत निश्चय आलोचना है ।

इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में २२७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश)
मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो ।
उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥
वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के ।
शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥४४॥
मोह के विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदय में आनेवाला) कर्म, उस समस्त को आलोचकर (उन सर्व कर्मों की आलोचना करके), मैं निष्कर्म (सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।

और उपासकाध्ययन में (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में १२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : —

(कलश)
किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो ।
आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ॥
अरे पूर्णत: उन्हें छोड़ने का अभिलाषी ।
धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ॥४५॥
किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापों की निष्कपटरूप से आलोचना करके, मरण-पर्यंत रहनेवाला, निःशेष (परिपूर्ण) महाव्रत धारण करना ।

और

(कलश--रोला)
पुण्य-पाप के भाव घोर संसार मूल हैं ।
बार-बार उन सबका आलोचन करके मैं ॥
शुद्ध आतमा का अवलंबन लेकर विधिवत् ।
द्रव्यकर्म को नाश ज्ञानलक्ष्मी को पाऊँ ॥१५२॥
घोर संसार के मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत को सदा आलोच-आलोचकर मैं निरुपाधिक (स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्मा को आत्मा से ही अवलम्बता हूँ । फिर द्रव्य-कर्मस्वरूप समस्त प्रकृति को अत्यन्त नष्ट करके सहज विलसती ज्ञान-लक्ष्मी को मैं प्राप्त करूँगा ।