
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आलोचनाधिकार उच्यते - निश्चयालोचनास्वरूपाख्यानमेतत् ।औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसकार्मणानि शरीराणि हि नोकर्माणि, ज्ञानदर्शनावरणांतरायमोहनीयवेदनीयायुर्नामगोत्राभिधानानि हि द्रव्यकर्माणि । कर्मोपाधिनिरपेक्षसत्ता-ग्राहकशुद्धनिश्चयद्रव्यार्थिकनयापेक्षया हि एभिर्नोकर्मभिर्द्रव्यकर्मभिश्च निर्मुक्त म् । मतिज्ञानादयोविभावगुणा नरनारकादिव्यंजनपर्यायाश्चैव विभावपर्यायाः । सहभुवो गुणाः क्रमभाविनः पर्यायाश्च । एभिः समस्तैः व्यतिरिक्तं , स्वभावगुणपर्यायैः संयुक्तं, त्रिकालनिरावरणनिरंजन-परमात्मानं त्रिगुप्तिगुप्तपरमसमाधिना यः परमश्रमणो नित्यमनुष्ठानसमये वचनरचनाप्रपंच-पराङ्मुखः सन् ध्यायति, तस्य भावश्रमणस्य सततं निश्चयालोचना भवतीति । तथा चोक्तं श्रीमदमृतचंद्रसूरिभिः - (कलश--आर्या) मोहविलासविजृंभितमिदमुदयत्कर्म सकलमालोच्य । आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते ॥ उक्तं चोपासकाध्ययने - (कलश--आर्या) आलोच्य सर्वमेनः कृतकारितमनुमतं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महाव्रतमामरणस्थायि निःशेषम् ॥ तथा हि - (कलश) आलोच्यालोच्य नित्यं सुकृतमसुकृतं घोरसंसारमूलं शुद्धात्मानं निरुपधिगुणं चात्मनैवावलम्बे । पश्चादुच्चैः प्रकृतिमखिलां द्रव्यकर्मस्वरूपां नीत्वा नाशं सहजविलसद्बोधलक्ष्मीं व्रजामि ॥१५२॥ अब आलोचना अधिकार कहा जाता है । यह, निश्चय-आलोचना के स्वरूप का कथन है । औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर वे नोकर्म हैं; ज्ञानावरण, दर्शनावरण, अंतराय, मोहनीय, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र नाम के द्रव्यकर्म हैं । कर्मोपाधि-निरपेक्ष सत्ताग्राहक शुद्ध निश्चय द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से परमात्मा इन नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित है । मतिज्ञानादिक वे विभावगुण हैं और नर-नारकादि व्यंजन पर्यायें ही विभाव पर्यायें हैं; गुण सहभावी होते हैं और पर्यायें क्रमभावी होती हैं । परमात्मा इन सबसे (विभाव गुणों तथा विभाव पर्यायों से) व्यतिरिक्त है । उपरोक्त नोकर्मों और द्रव्यकर्मों से रहित तथा उपरोक्त समस्त विभाव गुण पर्यायों से व्यतिरिक्त तथा स्वभाव गुण पर्यायों से संयुक्त, त्रिकाल-निरावरण निरंजन परमात्मा को त्रिगुप्तिगुप्त (तीन गुप्ति द्वारा गुप्त ऐसी) परम-समाधि द्वारा जो परम श्रमण सदा अनुष्ठान समय में वचन-रचना के प्रपंच से (विस्तार से) पराङ्मुख वर्तता हुआ ध्याता है, उस भाव-श्रमण को सतत निश्चय आलोचना है । इसीप्रकार (आचार्यदेव) श्रीमद् अमृतचन्द्रसूरि ने (श्री समयसार की आत्मख्याति नामक टीका में २२७वें श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश)
मोह के विलास से फैला हुआ जो यह उदयमान (उदय में आनेवाला) कर्म, उस समस्त को आलोचकर (उन सर्व कर्मों की आलोचना करके), मैं निष्कर्म (सर्व कर्मों से रहित) चैतन्य-स्वरूप आत्मा में आत्मा से ही (स्वयं से ही) निरंतर वर्तता हूँ ।मोहभाव से वर्तमान में कर्म किये जो । उन सबका आलोचन करके ही अब मैं तो ॥ वर्त रहा हूँ अरे निरन्तर स्वयं स्वयं के । शुद्ध बुद्ध चैतन्य परम निष्कर्म आत्म में ॥४४॥ और उपासकाध्ययन में (श्री समंतभद्रस्वामीकृत रत्नकरण्डश्रावकाचार में १२५वें श्लोक द्वारा) कहा है कि : — (कलश)
किये हुए, कराये हुए और अनुमोदन किये हुए सर्व पापों की निष्कपटरूप से आलोचना करके, मरण-पर्यंत रहनेवाला, निःशेष (परिपूर्ण) महाव्रत धारण करना ।किये कराये अनुमोदित पापों का अब तो । आलोचन करता हूँ मैं निष्कपट भाव से ॥ अरे पूर्णत: उन्हें छोड़ने का अभिलाषी । धारण करता यह महान व्रत अरे आमरण ॥४५॥ और (कलश--रोला)
घोर संसार के मूल ऐसे सुकृत और दुष्कृत को सदा आलोच-आलोचकर मैं निरुपाधिक (स्वाभाविक) गुणवाले शुद्ध आत्मा को आत्मा से ही अवलम्बता हूँ । फिर द्रव्य-कर्मस्वरूप समस्त प्रकृति को अत्यन्त नष्ट करके सहज विलसती ज्ञान-लक्ष्मी को मैं प्राप्त करूँगा ।
पुण्य-पाप के भाव घोर संसार मूल हैं । बार-बार उन सबका आलोचन करके मैं ॥ शुद्ध आतमा का अवलंबन लेकर विधिवत् । द्रव्यकर्म को नाश ज्ञानलक्ष्मी को पाऊँ ॥१५२॥ |