
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
आलोचनालक्षणभेदकथनमेतत् । भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतसकलजनताश्रुतिसुभगसुन्दरानन्दनिष्यन्द्यनक्षरात्मकदिव्य-ध्वनिपरिज्ञानकुशलचतुर्थज्ञानधरगौतममहर्षिमुखकमलविनिर्गतचतुरसन्दर्भगर्भीकृतराद्धान्तादिसमस्तशास्त्रार्थसार्थसारसर्वस्वीभूतशुद्धनिश्चयपरमालोचनायाश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति । तेवक्ष्यमाणसूत्रचतुष्टये निगद्यन्त इति । (कलश--इंद्रवज्रा) आलोचनाभेदममुं विदित्वा मुक्त्यंगनासंगमहेतुभूतम् । स्वात्मस्थितिं याति हि भव्यजीवः तस्मै नमः स्वात्मनि निष्ठिताय ॥५३॥ यह, आलोचना के स्वरूप के भेदों का कथन है । भगवान अर्हंत के मुखारविंद से निकली हुई, (श्रवण के लिये आई हुई) सकल-जनता को श्रवण का सौभाग्य प्राप्त हो ऐसी, सुन्दर - आनन्दस्यन्दी (सुन्दर - आनन्दझरती),अनक्षरात्मक जो दिव्यध्वनि, उसके परिज्ञान में कुशल चतुर्थ-ज्ञानधर (मनःपर्यय ज्ञानधारी) गौतम-महर्षि के मुख-कमल से निकली हुई जो चतुर वचन-रचना, उसके गर्भ में विद्यमान राद्धांतादि (सिद्धांतादि) समस्त शास्त्रों के अर्थ समूह के सार सर्व-स्वरूप शुद्ध-निश्चय - परम-आलोचना के चार भेद हैं । वे भेद अब आगे कहे जाने वाले चार सूत्रों में कहे जायेंगे । (कलश--हरिगीत)
मुक्तिरूपी रमणी के संगम के हेतुभूत ऐसे इन आलोचना के भेदों को जानकर जो भव्य-जीव वास्तव में निज-आत्मा में स्थिति प्राप्त करता है, उस स्वात्म निष्ठित को (उस निजात्मा में लीन भव्य-जीव को) नमस्कार हो ।
मुक्तिरूपी अंगना के समागम के हेतु जो । भेद हैं आलोचना के उन्हें जो भवि जानकर ॥ निज आतमा में लीन हो नित आत्मनिष्ठित ही रहें । हो नमन बारंबार उनको जो सदा निजरत रहें ॥१५३॥ |