+ आलोचन -
जो पस्सदि अप्पाणं समभावे संठवित्तु परिणामं ।
आलोयणमिदि जाणह परमजिणंदस्स उवएसं ॥109॥
यः पश्यत्यात्मानं समभावे संस्थाप्य परिणामम् ।
आलोचनमिति जानीहि परमजिनेन्द्रस्योपदेशम् ॥१०९॥
समभावमें परिणाम स्थापे और देखे आतमा ।
जिनवर वृषभ उपदेशमें वह जीव है आलोचना ॥१०९॥
अन्वयार्थ : [यः] जो (जीव) [परिणामम्] परिणाम को [समभावे] समभाव में [संस्थाप्य] स्थापकर [आत्मानं] (निज) आत्मा को [पश्यति] देखता है, [आलोचनम्] वह आलोचन है । [इति] ऐसा [परमजिनेन्द्रस्य] परम जिनेन्द्र का [उपदेशम्] उपदेश [जानीहि] जान ।
Meaning : Know him, who, having fixed his thought activity in equanimity, realises his soul, as observing (the practice of) confession (Alochana.) Such is the teaching of the supreme Conquerors.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इहालोचनास्वीकारमात्रेण परमसमताभावनोक्ता ।

यः सहजवैराग्यसुधासिन्धुनाथडिंडीरपिंडपरिपांडुरमंडनमंडलीप्रवृद्धिहेतुभूतराकानिशी-थिनीनाथः सदान्तर्मुखाकारमत्यपूर्वं निरंजननिजबोधनिलयं कारणपरमात्मानं निरव-शेषेणान्तर्मुखस्वस्वभावनिरतसहजावलोकनेन निरन्तरं पश्यति; किं कृत्वा ? पूर्वं निज-परिणामं समतावलंबनं कृत्वा परमसंयमीभूत्वा तिष्ठति; तदेवालोचनास्वरूपमिति हे शिष्य त्वं जानीहि परमजिननाथस्योपदेशात् इत्यालोचनाविकल्पेषु प्रथमविकल्पोऽयमिति ।
(कलश--स्रग्धरा)
आत्मा ह्यात्मानमात्मन्यविचलनिलयं चात्मना पश्यतीत्थं
यो मुक्ति श्रीविलासानतनुसुखमयान् स्तोककालेन याति ।
सोऽयं वंद्यः सुरेशैर्यमधरततिभिः खेचरैर्भूचरैर्वा
तं वंदे सर्ववंद्यं सकलगुणनिधिं तद्गुणापेक्षयाहम् ॥१५४॥
(कलश--मंदाक्रांता)
आत्मा स्पष्टः परमयमिनां चित्तपंकेजमध्ये
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितध्वान्तपुंजः पुराणः ।
सोऽतिक्रान्तो भवति भविनां वाङ्मनोमार्गमस्मि-
न्नारातीये परमपुरुषे को विधिः को निषेधः ॥१५५॥

एवमनेन पद्येन व्यवहारालोचनाप्रपंचमुपहसति किल परमजिनयोगीश्वरः ।
(कलश--पृथ्वी)
जयत्यनघचिन्मयं सहजतत्त्वमुच्चैरिदं
विमुक्त सकलेन्द्रियप्रकरजातकोलाहलम् ।
नयानयनिकायदूरमपि योगिनां गोचरं
सदा शिवमयं परं परमदूरमज्ञानिनाम् ॥१५६॥
(कलश--मंदाक्रांता)
शुद्धात्मानं निजसुखसुधावार्धिमज्जन्तमेनं
बुद्ध्वा भव्यः परमगुरुतः शाश्वतं शंप्रयाति ।
तस्मादुच्चैरहमपि सदा भावयाम्यत्यपूर्वं
भेदाभावे किमपि सहजं सिद्धिभूसौख्यशुद्धम् ॥१५७॥
(कलश--वसंततिलका)
निर्मुक्त संगनिकरं परमात्मतत्त्वं
निर्मोहरूपमनघं परभावमुक्तम् ।
संभावयाम्यहमिदं प्रणमामि नित्यं
निर्वाणयोषिदतनूद्भवसंमदाय ॥१५८॥
(कलश--वसंततिलका)
त्यक्त्वा विभावमखिलं निजभावभिन्नं
चिन्मात्रमेकममलं परिभावयामि ।
संसारसागरसमुत्तरणाय नित्यं
निर्मुक्ति मार्गमपि नौम्यविभेदमुक्तम् ॥१५९॥



यहाँ, आलोचना के स्वीकारमात्र से परम-समता भावना कही गई है ।

सहज वैराग्यरूपी अमृत-सागर के फेन-समूह के श्वेत शोभामण्डल की वृद्धि के हेतुभूत पूर्ण-चन्द्र समान (सहज वैराग्य में ज्वार लाकर उसकी उज्ज्वलता बढ़ानेवाला) जो जीव सदा अंतर्मुखाकार (सदा अंतर्मुख जिसका स्वरूप है ऐसे), अति अपूर्व, निरंजन निजबोध के स्थानभूत कारण परमात्मा को निरवशेषरूप से अन्तर्मुख निज स्वभाव निरत सहज-अवलोकन द्वारा निरंतर देखता है (जो जीव कारण परमात्मा को सर्वथा अन्तर्मुख ऐसा जो निज स्वभावमें लीन सहज - अवलोकन उसके द्वारा निरंतर देखता है - अनुभवता है ); क्या करके देखता है ? पहले निज-परिणाम को समतावलम्बी करके, परम संयमीभूतरूप से रहकर देखता है; वही आलोचना का स्वरूप है ऐसा, हे शिष्य ! तू परम जिननाथ के उपदेश द्वारा जान । ऐसा यह, आलोचना के भेदों में प्रथम भेद हुआ ।

(कलश--हरिगीत)
जो आतमा को स्वयं में अविचलनिलय ही देखता ।
वह आतमा आनन्दमय शिवसंगनी सुख भोगता ॥
संयतों से इन्द्र चक्री और विद्याधरों से ।
भी वंद्य गुणभंडार आतमराम को वंदन करूँ ॥१५४॥
इसप्रकार जो आत्मा, आत्मा को, आत्मा द्वारा, आत्मा में अविचल निवासवाला देखता है, वह अनंग - सुखमय (अतीन्द्रिय आनन्दमय) ऐसे मुक्ति-लक्ष्मी के विलासों को अल्प-काल में प्राप्त करता है । वह आत्मा सुरेशों से, संयमधरों की पंक्तियों से, खेचरों से (विद्याधरों से) तथा भूचरों से (भूमिगोचरियों से) वंद्य है । मैं उस सर्व-वंद्य सकल-गुणनिधि को (सर्व से वंद्य ऐसे समस्त गुणों के भण्डार को) उसके गुणों की अपेक्षा से (अभिलाषा से) वंदन करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
जगतजन के मन-वचन से अगोचर जो आतमा ।
वह ज्ञानज्योति पापतम नाशक पुरातन आतमा ॥
जो परम संयमिजनों के नित चित्त पंकज में बसे ।
उसकी कथा क्या करें क्या न करें हम नहिं जानते ॥१५५॥
जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पाप-तिमिर के पुंज का नाश किया है और जो पुराण (सनातन) है ऐसा आत्मा परम-संयमियों के चित्त-कमल में स्पष्ट है । वह आत्मा संसारी-जीवों के वचन - मनोमार्ग से अतिक्रांत (वचन तथा मन के मार्ग से अगोचर) है । इस निकट परम-पुरुष में विधि क्या और निषेध क्या ?

इसप्रकार इस पद्य द्वारा परम जिनयोगीश्वर ने वास्तव में व्यवहार-आलोचना के प्रपंच का उपहास किया है ।

(कलश--हरिगीत)
इन्द्रियरव से मुक्त अर अज्ञानियों से दूर है ।
अर नय-अनय से दूर फिर भी योगियों को गम्य है ॥
सदा मंगलमय सदा उत्कृष्ट आतमतत्त्व जो ।
वह पापभावों से रहित चेतन सदा जयवंत है ॥१५६॥
जो सकल इन्द्रियों के समूह से उत्पन्न होनेवाले कोलाहल से विमुक्त है, जो नय और अनय के समूह से दूर होने पर भी योगियों को गोचर है, जो सदा शिवमय है, उत्कृष्ट है और जो अज्ञानियों को परम दूर है, ऐसा यह अनघ - चैतन्यमय सहजतत्त्व अत्यन्त जयवन्त है ।

(कलश--हरिगीत)
श्रीपरमगुरुओं की कृपा से भव्यजन इस लोक में ।
निज सुख सुधासागर निमज्जित आतमा को जानकर ॥
नित प्राप्त करते सहजसुख निर्भेद दृष्टिवंत हो ।
उस अपूरब तत्त्व को मैं भा रहा अति प्रीति से ॥१५७॥
निज सुखरूपी सुधा के सागर में डूबते हुए इस शुद्धात्मा को जानकर भव्य-जीव परम-गुरु द्वारा शाश्वत-सुख को प्राप्त करते हैं; इसलिये, भेद के अभाव की दृष्टि से जो सिद्धि से उत्पन्न होनेवाले सौख्य द्वारा शुद्ध है ऐसे किसी (अद्भुत) सहज तत्त्व को मैं भी सदा अति-अपूर्व रीति से अत्यन्त भाता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
सब ग्रन्थ से निर्ग्रन्थ शुध परभावदल से मुक्त है ।
निर्मोह है निष्पाप है वह परम आतमतत्त्व है ॥
निर्वाणवनिताजन्यसुख को प्राप्त करने के लिए ।
उस तत्त्व को करता नमन नित भावना भी उसी की ॥१५८॥
सर्व-संग से निर्मुक्त, निर्मोहरूप, अनघ और परभाव से मुक्त ऐसे इस परमात्म-तत्त्व को मैं निर्वाणरूपी स्त्री से उत्पन्न होनेवाले अनंग सुख के लिये नित्य संभाता हूँ (सम्यक्-रूप से भाता हूँ) और प्रणाम करता हूँ ।

(कलश--हरिगीत)
भिन्न जो निजभाव से उन विभावों को छोड़कर ।
मैं करूँ नित चिन्मात्र निर्मल आतमा की भावना ॥
कर जोड़कर मैं नमन करता मुक्ति मारग को सदा ।
इस दुखमयी भव-उदधि से बस पार पाने के लिए ॥१५९॥
निज-भाव से भिन्न ऐसे सकल विभाव को छोड़कर एक निर्मल चिन्मात्र को मैं भाता हूँ । संसार-सागर को तर जाने के लिये, अभेद कहे हुए (जिसे जिनेन्द्रों ने भेद-रहित कहा है ऐसे) मुक्ति के मार्ग को भी मैं नित्य नमन करता हूँ ।