
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
परमभावस्वरूपाख्यानमेतत् । भव्यस्य पारिणामिकभावस्वभावेन परमस्वभावः । औदयिकादिचतुर्णां विभाव-स्वभावानामगोचरः स पंचमभावः । अत एवोदयोदीरणक्षयक्षयोपशमविविधविकारविवर्जितः ।अतः कारणादस्यैकस्य परमत्वम्, इतरेषां चतुर्णां विभावानामपरमत्वम् । निखिलकर्मविषवृक्ष-मूलनिर्मूलनसमर्थः त्रिकालनिरावरणनिजकारणपरमात्मस्वरूपश्रद्धानप्रतिपक्षतीव्रमिथ्यात्वकर्मोदयबलेन कुद्रष्टेरयं परमभावः सदा निश्चयतो विद्यमानोऽप्यविद्यमान एव । नित्यनिगोदक्षेत्र-ज्ञानामपि शुद्धनिश्चयनयेन स परमभावः अभव्यत्वपारिणामिक इत्यनेनाभिधानेन न संभवति । यथा मेरोरधोभागस्थितसुवर्णराशेरपि सुवर्णत्वं, अभव्यानामपि तथा परमस्वभावत्वं; वस्तुनिष्ठं, न व्यवहारयोग्यम् । सुद्रशामत्यासन्नभव्यजीवानां सफ लीभूतोऽयं परमभावः सदा निरंजनत्वात्;यतः सकलकर्मविषमविषद्रुमपृथुमूलनिर्मूलनसमर्थत्वात् निश्चयपरमालोचनाविकल्पसंभवा-लुंछनाभिधानम् अनेन परमपंचमभावेन अत्यासन्नभव्यजीवस्य सिध्यतीति । (कलश--मंदाक्रांता) एको भावः स जयति सदा पंचमः शुद्धशुद्धः कर्मारातिस्फुटितसहजावस्थया संस्थितो यः । मूलं मुक्तेर्निखिलयमिनामात्मनिष्ठापराणां एकाकारः स्वरसविसरापूर्णपुण्यः पुराणः ॥१६०॥ (कलश--मंदाक्रांता) आसंसारादखिलजनतातीव्रमोहोदयात्सा मत्ता नित्यं स्मरवशगता स्वात्मकार्यप्रमुग्धा । ज्ञानज्योतिर्धवलितककुभ्मंडलं शुद्धभावं मोहाभावात्स्फु टितसहजावस्थमेषा प्रयाति ॥१६१॥ यह, परमभाव के स्वरूप का कथन है । भव्य को पारिणामिक भावरूप स्वभाव होने के कारण परम स्वभाव है । वह पंचम भाव औदयिकादि चार विभाव स्वभावों को अगोचर है । इसीलिये वह पंचम भाव उदय, उदीरणा, क्षय, क्षयोपशम ऐसे विविध विकारों से रहित है । इस कारण से इस एक को परमपना है, शेष चार विभावों को अपरमपना है । समस्त कर्मरूपी विष-वृक्ष के मूल को उखाड़ देने में समर्थ ऐसा यह परमभाव, त्रिकाल-निरावरण निज कारण-परमात्मा के स्वरूप की श्रद्धा से प्रतिपक्ष तीव्र मिथ्यात्व कर्म के उदय के कारण कुदृष्टि को, सदा निश्चय से विद्यमान होने पर भी, अविद्यमान ही है (कारण कि मिथ्यादृष्टि को उस परमभाव के विद्यमानपने की श्रद्धा नहीं है) । नित्य-निगोद के जीवों को भी शुद्ध-निश्चयनय से वह परमभाव 'अभव्यत्व पारिणामिक' ऐसे नाम सहित नहीं है (परन्तु शुद्धरूप से ही है) । जिसप्रकार मेरु के अधोभाग में स्थित सुवर्णराशि को भी सुवर्णपना है, उसीप्रकार अभव्यों को भी परम स्वभावपना है; वह वस्तु-निष्ठ है, व्यवहार-योग्य नहीं है (जिसप्रकार मेरु के नीचे स्थित सुवर्ण-राशि का सुवर्णपना सुवर्ण-राशि में विद्यमान है किन्तु वह उपयोग में नहीं आता, उसीप्रकार अभव्यों का परम-स्वभावपना आत्म-वस्तु में विद्यमान है किन्तु वह उपयोग में नहीं आता क्योंकि अभव्य जीव परम-स्वभाव का आश्रय करने के लिये अयोग्य हैं) । सुदृष्टियों (अति आसन्न-भव्य जीवों) को यह परमभाव सदा निरंजनपने के कारण (सदा निरंजनरूप से प्रतिभासित होने के कारण) सफल हुआ है; जिससे, इस परम पंचमभाव द्वारा अति-आसन्न-भव्य जीव को निश्चय-परम-आलोचना के भेदरूप से उत्पन्न होनेवाला 'आलुंछन' नाम सिद्ध होता है, कारण कि वह परमभाव समस्त कर्मरूपी विषम-विषवृक्ष के विशाल मूल को उखाड़ देने में समर्थ है । (कलश--हरिगीत)
जो कर्म की दूरी के कारण प्रगट सहजावस्था पूर्वक विद्यमान है, जो आत्म निष्ठापरायण (आत्म-स्थित) समस्त मुनियों को मुक्ति का मूल है, जो एकाकार है (सदा एकरूप है), जो निज-रस के फैलाव से भरपूर होने के कारण पवित्र है और जो पुराण (सनातन) है, वह शुद्ध-शुद्ध एक पंचम भाव सदा जयवन्त है ।हैं आत्मनिष्ठा परायण जो मूल उनकी मुक्ति का । जो सहजवस्थारूप पुण्य-पाप एकाकार है ॥ जो शुद्ध है नित शुद्ध एवं स्वरस से भरपूर है । जयवंत पंचमभाव वह जो आत्मा का नूर है ॥१६०॥ (कलश--हरिगीत)
अनादि संसार से समस्त जनता को (जनसमूह को) तीव्र-मोह के उदय के कारण ज्ञान-ज्योति सदा मत्त है, काम के वश है और निज आत्म-कार्य में मूढ़ है । मोहके अभाव से यह ज्ञान-ज्योति शुद्ध-भाव को प्राप्त करती है, कि जिस शुद्ध-भाव ने दिशा-मण्डल को धवलित (उज्ज्वल) किया है तथा सहज अवस्था प्रगट की है ।
इस जगतजन की ज्ञानज्योति अरे काल अनादि से । रे मोहवश मदमत्त एवं मूढ है निजकार्य में ॥ निर्मोह तो वह ज्ञान-ज्योति प्राप्त कर शुधभाव को । उज्ज्वल करे सब ओर से तब सहजवस्था प्राप्त हो ॥१६१॥ |