
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्त : । यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-(निलयंमध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण) अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति । (कलश--मंदाक्रांता) आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशे- रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः । मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ॥१६२॥ (कलश--मंदाक्रांता) अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणः शुद्धभावामृताम्भो- राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः । शुद्धात्मा यः प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ॥१६३॥ (कलश--वसंततिलका) संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै- र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने । लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ॥१६४॥ (कलश--वसंततिलका) मुक्त : कदापि न हि याति विभावकायं तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात् । तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ॥१६५॥ (कलश--अनुष्टुभ्) प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम् । भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ॥१६६॥ (कलश--अनुष्टुभ्) अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तमम् । शुभाशुभविनिर्मुक्त शुद्धचैतन्यभावना ॥१६७॥ (कलश--मालिनी) अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा । भवमरणविमुक्तं पंचमुक्ति प्रदं यं तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ॥१६८॥ (कलश--मालिनी) अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् । तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धद्रष्टिः स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१६९॥ (कलश--मालिनी) जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः । विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ॥१७०॥ यहाँ शुद्धोपयोगी जीव की परिणति-विशेष का (मुख्य परिणति का) कथन है । पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म और नोकर्म से भिन्न आत्मा को, कि जो सहज गुणों का निधान है उसे, मध्यस्थ भावना में भाता है, उसे अविकृतिकरण नामक परम-आलोचना का स्वरूप वर्तता ही है । (कलश--हरिगीत)
आत्मा निरंतर द्रव्य-कर्म और नोकर्म के समूह से भिन्न है, अन्तरंग में शुद्ध है और शम-दम गुणरूपी कमलों का राजहंस है (जिसप्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणों में रमता है ) । सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्य-चमत्कार की मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोह के अभाव के कारण समस्त पर को (पर द्रव्य-भावों को) ग्रहण नहीं ही करता ।अरे अन्त:शुद्ध शम-दमगुणकमलनी हंस जो । आनन्द गुण भरपूर कर्मों से सदा है भिन्न जो ॥ चैतन्यमूर्ति अनूप नित छोड़े न ज्ञानस्वभाव को । वह आत्मा न ग्रहे किंचित् किसी भी परभाव को ॥१६२॥ (कलश--हरिगीत)
जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियों का समूह है, जिसने सदा विशद-विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में पाप-कलंक को धो डाला है तथा जिसने इन्द्रिय-समूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञान-ज्योति द्वारा अंधकारदशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।अरे निर्मलभाव अमृत उदधि में डुबकी लगा । धोये हैं पापकलंक एवं शान्त कोलाहल किया ॥ इन्द्रियों से जन्य अक्षय अलख गुणमय आतमा । रे स्वयं अंतर्ज्योति से तम नाश जगमग हो रहा ॥१६३॥ (कलश--रोला)
संसार के घोर, सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिक से प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोक में यह मुनिवर समता के प्रसाद से शमामृतमय जो हिम-राशि (बर्फ का ढेर) को प्राप्त करते हैं ।अरे सहज ही घोर दु:ख संसार घोर में । प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दु:खों से ॥ किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से । अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं ॥१६४॥ (कलश--रोला)
मुक्त-जीव विभाव-समूह को कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृत का नाश किया है । इसलिये अब मैं सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म-जाल को छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग पर जाता हूँ (अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ)रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते । क्योंकि उन्होंने सुकृत-दुष्कृत नाश किये हैं ॥ इसीलिए तो सुकृत-दुष्कृत कर्मजाल तज । अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में ॥१६५॥ (कलश--दोहा)
पुद्गल-स्कन्धों द्वारा जो अस्थिर है (पुद्गल-स्कन्धों के आने-जाने से जो एक-सी नहीं रहती) ऐसी इस भवमूर्ति को (भव की मूर्तिरूप काया को) छोड़कर मैं सदा शुद्ध ऐसा जो ज्ञान-शरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ ।अस्थिर पुद्गलखंध तन तज भवमूरत जान । सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम ॥१६६॥ (कलश--दोहा)
शुभ और अशुभ से रहित शुद्ध-चैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार-रोग की उत्तम औषधि है ।शुध चेतन की भावना, रहित शुभाशुभभाव । औषधि है भव रोग की, वीतरागमय भाव ॥१६७॥ (कलश--रोला)
पाँच प्रकार के (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप) संसार का मूल विविध भेदों वाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो जन्म-मरण रहित है और पाँच प्रकार की मुक्ति देनेवाला है उसे (शुद्धात्मा को) मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ ।अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण । विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं ॥ अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित । मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ॥१६८॥ (कलश--रोला)
इस प्रकार आदि-अन्त रहित ऐसी यह आत्म-ज्योति सुललित (सुमधुर) वाणी का अथवा सत्य-वाणी का भी विषय नहीं है; तथापि गुरु के वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्री रूपी कामिनी का वल्लभ होता है (मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है ) ।यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति । सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है ॥ फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर । सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते ॥१६९॥ (कलश--रोला)
जिसने सहज तेज से रागरूपी अन्धकार का नाश किया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है, जो शुद्ध-शुद्ध है, जो विषय-सुख में रत जीवों को सर्वदा दुर्लभ है, जो परम-सुख का समुद्र है, जो शुद्ध-ज्ञान है तथा जिसने निद्रा का नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध-आत्मा) जयवन्त है ।
अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है । मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता । विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है । शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता ॥१७०॥ |