+ अविकृतिकरण -
कम्मादो अप्पाणं भिण्णं भावेइ विमलगुणणिलयं ।
मज्झत्थभावणाए वियडीकरणं ति विण्णेयं ॥111॥
कर्मणः आत्मानं भिन्नं भावयति विमलगुणनिलयम् ।
मध्यस्थभावनायामविकृतिकरणमिति विज्ञेयम् ॥१११॥
निर्मलगुणाकर कर्म-विरहित अनुभवन जो आत्म का ।
माध्यस्थ भावों में करे, अविकृतिकरण उसे कहा ॥१११॥
अन्वयार्थ : [मध्यस्थभावनायाम्] जो मध्यस्थ भावना में [कर्मणः भिन्नम्] कर्म से भिन्न [आत्मानं] आत्मा को [विमलगुणनिलयं] कि जो विमलगुणों का निवास है उसे [भावयति] भाता है, [अविकृतिकरणम् इति विज्ञेयम्] उस जीव को अविकृतिकरण जानना ।
Meaning : He, who realises his soul as free from karmas and as an abode of pure attributes, obtains non-deformity (avikrati karana) in equanimity.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि शुद्धोपयोगिनो जीवस्य परिणतिविशेषः प्रोक्त : ।

यः पापाटवीपावको द्रव्यभावनोकर्मभ्यः सकाशाद् भिन्नमात्मानं सहजगुण-(निलयंमध्यस्थभावनायां भावयति तस्याविकृतिकरण) अभिधानपरमालोचनायाः स्वरूपमस्त्येवेति ।

(कलश--मंदाक्रांता)
आत्मा भिन्नो भवति सततं द्रव्यनोकर्मराशे-
रन्तःशुद्धः शमदमगुणाम्भोजिनीराजहंसः ।
मोहाभावादपरमखिलं नैव गृह्णाति सोऽयं
नित्यानंदाद्यनुपमगुणश्चिच्चमत्कारमूर्तिः ॥१६२॥
(कलश--मंदाक्रांता)
अक्षय्यान्तर्गुणमणिगणः शुद्धभावामृताम्भो-
राशौ नित्यं विशदविशदे क्षालितांहःकलंकः ।
शुद्धात्मा यः प्रहतकरणग्रामकोलाहलात्मा
ज्ञानज्योतिःप्रतिहततमोवृत्तिरुच्चैश्चकास्ति ॥१६३॥
(कलश--वसंततिलका)
संसारघोरसहजादिभिरेव रौद्रै-
र्दुःखादिभिः प्रतिदिनं परितप्यमाने ।
लोके शमामृतमयीमिह तां हिमानीं
यायादयं मुनिपतिः समताप्रसादात् ॥१६४॥
(कलश--वसंततिलका)
मुक्त : कदापि न हि याति विभावकायं
तद्धेतुभूतसुकृतासुकृतप्रणाशात् ।
तस्मादहं सुकृतदुष्कृतकर्मजालं
मुक्त्वा मुमुक्षुपथमेकमिह व्रजामि ॥१६५॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
प्रपद्येऽहं सदाशुद्धमात्मानं बोधविग्रहम् ।
भवमूर्तिमिमां त्यक्त्वा पुद्गलस्कन्धबन्धुराम् ॥१६६॥
(कलश--अनुष्टुभ्)
अनादिममसंसाररोगस्यागदमुत्तमम् ।
शुभाशुभविनिर्मुक्त शुद्धचैतन्यभावना ॥१६७॥
(कलश--मालिनी)
अथ विविधविकल्पं पंचसंसारमूलं
शुभमशुभसुकर्म प्रस्फुटं तद्विदित्वा ।
भवमरणविमुक्तं पंचमुक्ति प्रदं यं
तमहमभिनमामि प्रत्यहं भावयामि ॥१६८॥
(कलश--मालिनी)
अथ सुललितवाचां सत्यवाचामपीत्थं
न विषयमिदमात्मज्योतिराद्यन्तशून्यम् ।
तदपि गुरुवचोभिः प्राप्य यः शुद्धद्रष्टिः
स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१६९॥
(कलश--मालिनी)
जयति सहजतेजःप्रास्तरागान्धकारो
मनसि मुनिवराणां गोचरः शुद्धशुद्धः ।
विषयसुखरतानां दुर्लभः सर्वदायं
परमसुखसमुद्रः शुद्धबोधोऽस्तनिद्रः ॥१७०॥



यहाँ शुद्धोपयोगी जीव की परिणति-विशेष का (मुख्य परिणति का) कथन है ।

पापरूपी अटवी को जलाने के लिये अग्नि समान ऐसा जो जीव द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म और नोकर्म से भिन्न आत्मा को, कि जो सहज गुणों का निधान है उसे, मध्यस्थ भावना में भाता है, उसे अविकृतिकरण नामक परम-आलोचना का स्वरूप वर्तता ही है ।

(कलश--हरिगीत)
अरे अन्त:शुद्ध शम-दमगुणकमलनी हंस जो ।
आनन्द गुण भरपूर कर्मों से सदा है भिन्न जो ॥
चैतन्यमूर्ति अनूप नित छोड़े न ज्ञानस्वभाव को ।
वह आत्मा न ग्रहे किंचित् किसी भी परभाव को ॥१६२॥
आत्मा निरंतर द्रव्य-कर्म और नोकर्म के समूह से भिन्न है, अन्तरंग में शुद्ध है और शम-दम गुणरूपी कमलों का राजहंस है (जिसप्रकार राजहंस कमलों में केलि करता है उसीप्रकार आत्मा शान्तभाव और जितेन्द्रियतारूपी गुणों में रमता है ) । सदा आनन्दादि अनुपम गुणवाला और चैतन्य-चमत्कार की मूर्ति ऐसा वह आत्मा मोह के अभाव के कारण समस्त पर को (पर द्रव्य-भावों को) ग्रहण नहीं ही करता ।

(कलश--हरिगीत)
अरे निर्मलभाव अमृत उदधि में डुबकी लगा ।
धोये हैं पापकलंक एवं शान्त कोलाहल किया ॥
इन्द्रियों से जन्य अक्षय अलख गुणमय आतमा ।
रे स्वयं अंतर्ज्योति से तम नाश जगमग हो रहा ॥१६३॥
जो अक्षय अन्तरंग गुणमणियों का समूह है, जिसने सदा विशद-विशद (अत्यन्त निर्मल) शुद्धभावरूपी अमृत के समुद्र में पाप-कलंक को धो डाला है तथा जिसने इन्द्रिय-समूह के कोलाहल को नष्ट कर दिया है, वह शुद्ध आत्मा ज्ञान-ज्योति द्वारा अंधकारदशा का नाश करके अत्यन्त प्रकाशमान होता है ।

(कलश--रोला)
अरे सहज ही घोर दु:ख संसार घोर में ।
प्रतिदिन तपते जीव अनंते घोर दु:खों से ॥
किन्तु मुनिजन तो नित समता के प्रसाद से ।
अरे शमामृत हिम की शीतलता पाते हैं ॥१६४॥
संसार के घोर, सहज इत्यादि रौद्र दुःखादिक से प्रतिदिन परितप्त होनेवाले इस लोक में यह मुनिवर समता के प्रसाद से शमामृतमय जो हिम-राशि (बर्फ का ढेर) को प्राप्त करते हैं ।

(कलश--रोला)
रे विभावतन मुक्त जीव तो कभी न पाते ।
क्योंकि उन्होंने सुकृत-दुष्कृत नाश किये हैं ॥
इसीलिए तो सुकृत-दुष्कृत कर्मजाल तज ।
अरे जा रहा हूँ मुमुक्षुओं के मारग में ॥१६५॥
मुक्त-जीव विभाव-समूह को कदापि प्राप्त नहीं होता क्योंकि उसने उसके हेतुभूत सुकृत और दुष्कृत का नाश किया है । इसलिये अब मैं सुकृत और दुष्कृतरूपी कर्म-जाल को छोड़कर एक मुमुक्षुमार्ग पर जाता हूँ (अर्थात् मुमुक्षु जिस मार्ग पर चले हैं उसी एक मार्ग पर चलता हूँ)

(कलश--दोहा)
अस्थिर पुद्गलखंध तन तज भवमूरत जान ।
सदा शुद्ध जो ज्ञानतन पाया आतम राम ॥१६६॥
पुद्गल-स्कन्धों द्वारा जो अस्थिर है (पुद्गल-स्कन्धों के आने-जाने से जो एक-सी नहीं रहती) ऐसी इस भवमूर्ति को (भव की मूर्तिरूप काया को) छोड़कर मैं सदा शुद्ध ऐसा जो ज्ञान-शरीरी आत्मा उसका आश्रय करता हूँ ।

(कलश--दोहा)
शुध चेतन की भावना, रहित शुभाशुभभाव ।
औषधि है भव रोग की, वीतरागमय भाव ॥१६७॥
शुभ और अशुभ से रहित शुद्ध-चैतन्य की भावना मेरे अनादि संसार-रोग की उत्तम औषधि है ।

(कलश--रोला)
अरे पंचपरिवर्तनवाले भव के कारण ।
विविध विकल्पोंवाले शुभ अर अशुभ कर्म हैं ॥
अरे जानकर ऐसा जनम-मरण से विरहित ।
मुक्ति प्रदाता शुद्धातम को नमन करूँ मैं ॥१६८॥
पाँच प्रकार के (द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परावर्तनरूप) संसार का मूल विविध भेदों वाला शुभाशुभ कर्म है ऐसा स्पष्ट जानकर, जो जन्म-मरण रहित है और पाँच प्रकार की मुक्ति देनेवाला है उसे (शुद्धात्मा को) मैं नमन करता हूँ और प्रतिदिन भाता हूँ ।

(कलश--रोला)
यद्यपि आदि-अन्त से विरहित आतमज्योति ।
सत्य और सुमधुर वाणी का विषय नहीं है ॥
फिर भी गुरुवचनों से आतमज्योति प्राप्त कर ।
सम्यग्दृष्टि जीव मुक्तिवधु वल्लभ होते ॥१६९॥
इस प्रकार आदि-अन्त रहित ऐसी यह आत्म-ज्योति सुललित (सुमधुर) वाणी का अथवा सत्य-वाणी का भी विषय नहीं है; तथापि गुरु के वचनों द्वारा उसे प्राप्त करके जो शुद्ध दृष्टिवाला होता है, वह परमश्री रूपी कामिनी का वल्लभ होता है (मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है )

(कलश--रोला)
अरे रागतम सहजतेज से नाश किया है ।
मुनिमनगोचर शुद्ध शुद्ध उनके मन बसता ।
विषयी जीवों को दुर्लभ जो सुख समुद्र है ।
शुद्ध ज्ञानमय शुद्धातम जयवंत वर्तता ॥१७०॥
जिसने सहज तेज से रागरूपी अन्धकार का नाश किया है, जो मुनिवरों के मन में वास करता है, जो शुद्ध-शुद्ध है, जो विषय-सुख में रत जीवों को सर्वदा दुर्लभ है, जो परम-सुख का समुद्र है, जो शुद्ध-ज्ञान है तथा जिसने निद्रा का नाश किया है, ऐसा यह (शुद्ध-आत्मा) जयवन्त है ।