
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
भावशुद्धयभिधानपरमालोचनास्वरूपप्रतिपादनद्वारेण शुद्धनिश्चयालोचनाधिकारोप-संहारोपन्यासोऽयम् । तीव्रचारित्रमोहोदयबलेन पुंवेदाभिधाननोकषायविलासो मदः । अत्र मदशब्देन मदनःकामपरिणाम इत्यर्थः । चतुरसंदर्भगर्भीकृतवैदर्भकवित्वेन आदेयनामकर्मोदये सतिसकलजनपूज्यतया, मातृपितृसम्बन्धकुलजातिविशुद्धया वा, शतसहस्रकोटिभटाभिधान- प्रधानब्रह्मचर्यव्रतोपार्जितनिरुपमबलेन च, दानादिशुभकर्मोपार्जितसंपद्वृद्धिविलासेन, अथवा बुद्धितपोवैकुर्वणौषधरसबलाक्षीणर्द्धिभिः सप्तभिर्वा, कमनीयकामिनीलोचनानन्देन वपुर्लावण्य-रसविसरेण वा आत्माहंकारो मानः । गुप्तपापतो माया । युक्त स्थले धनव्ययाभावो लोभः; निश्चयेन निखिलपरिग्रहपरित्यागलक्षणनिरंजननिजपरमात्मतत्त्वपरिग्रहात् अन्यत् परमाणुमात्र-द्रव्यस्वीकारो लोभः । एभिश्चतुर्भिर्वा भावैः परिमुक्त : शुद्धभाव एव भावशुद्धिरिति भव्य-प्राणिनां लोकालोकप्रदर्शिभिः परमवीतरागसुखामृतपानपरितृप्तैर्भगवद्भिरर्हद्भिरभिहित इति । (कलश--मालिनी) अथ जिनपतिमार्गालोचनाभेदजालं परिहृतपरभावो भव्यलोकः समन्तात् । तदखिलमवलोक्य स्वस्वरूपं च बुद्ध्वा स भवति परमश्रीकामिनीकामरूपः ॥१७१॥ (कलश--वसंततिलका) आलोचना सततशुद्धनयात्मिका या निर्मुक्ति मार्गफलदा यमिनामजस्रम् । शुद्धात्मतत्त्वनियताचरणानुरूपा स्यात्संयतस्य मम सा किल कामधेनुः ॥१७२॥ (कलश--शालिनी) शुद्धं तत्त्वं बुद्धलोकत्रयं यद् बुद्ध्वा बुद्ध्वा निर्विकल्पं मुमुक्षुः । तत्सिद्धयर्थं शुद्धशीलं चरित्वा सिद्धिं यायात् सिद्धिसीमन्तिनीशः ॥१७३॥ (कलश--स्रग्धरा) सानन्दं तत्त्वमज्जज्जिनमुनिहृदयाम्भोजकिंजल्कमध्ये निर्व्याबाधं विशुद्धं स्मरशरगहनानीकदावाग्निरूपम् । शुद्धज्ञानप्रदीपप्रहतयमिमनोगेहघोरान्धकारं तद्वन्दे साधुवन्द्यं जननजलनिधौ लंघने यानपात्रम् ॥१७४॥ (कलश--हरिणी) अभिनवमिदं पापं यायाः समग्रधियोऽपि ये विदधति परं ब्रूमः किं ते तपस्विन एव हि । हृदि विलसितं शुद्धं ज्ञानं च पिंडमनुत्तमं पदमिदमहो ज्ञात्वा भूयोऽपि यान्ति सरागताम् ॥१७५॥ (कलश--हरिणी) जयति सहजं तत्त्वं तत्त्वेषु नित्यमनाकुलं सततसुलभं भास्वत्सम्यग्द्रशां समतालयम् । परमकलया सार्धं वृद्धं प्रवृद्धगुणैर्निजैः स्फुटितसहजावस्थं लीनं महिम्नि निजेऽनिशम् ॥१७६॥ (कलश--हरिणी) सहजपरमं तत्त्वं तत्त्वेषु सप्तसु निर्मलं सकलविमलज्ञानावासं निरावरणं शिवम् । विशदविशदं नित्यं बाह्यप्रपंचपराङ्मुखं किमपि मनसां वाचां दूरं मुनेरपि तन्नुमः ॥१७७॥ (कलश--द्रुतविलंबित) जयति शांतरसामृतवारिधि- प्रतिदिनोदयचारुहिमद्युतिः । अतुलबोधदिवाकरदीधिति- प्रहतमोहतमस्समितिर्जिनः ॥१७८॥ (कलश--द्रुतविलंबित) विजितजन्मजरामृतिसंचयः प्रहतदारुणरागकदम्बकः । अघमहातिमिरव्रजभानुमान् जयति यः परमात्मपदस्थितः ॥१७९॥ इति सुकविजनपयोजमित्रपंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहश्रीपद्मप्रभमलधारिदेवविरचितायांनियमसारव्याख्यायां तात्पर्यवृत्तौ परमालोचनाधिकारः सप्तमः श्रुतस्कन्धः ॥ यह, भावशुद्धि नामक परम-आलोचना के स्वरूप के प्रतिपादन द्वारा शुद्ध-निश्चय-आलोचना अधिकार के उपसंहार का कथन है ।
(कलश--हरिगीत)
जो भव्य लोक (भव्यजन-समूह) जिनपति के मार्ग में कहे हुए समस्त आलोचना के भेद-जाल को देखकर तथा निज-स्वरूप को जानकर सर्व-ओर से परभाव को छोड़ता है, वह परमश्रीरूपी कामिनी का वल्लभ होता है (अर्थात् मुक्ति-सुन्दरी का पति होता है) ।जिनवर कथित आलोचना के भेद सब पहिचान कर । भव्य के श्रद्धेय ज्ञायकभाव को भी जानकर ॥ जो भव्य छोड़े सर्वत: परभाव को पर जानकर । हो वही वल्लभ परमश्री का परमपद को प्राप्त कर ॥१७१॥ (कलश--रोला)
संयमियों को सदा मोक्षमार्ग का फल देनेवाली तथा शुद्ध-आत्मतत्त्व में नियत (रत) आचरण के अनुरूप ऐसी जो निरंतर शुद्धनयात्मक आलोचना वह मुझे संयमी को वास्तव में कामधेनुरूप हो ।संयमधारी सन्तों को फल मुक्तिमार्ग का । जो देती है और स्वयं के आत्मतत्त्व में ॥ नियत आचरण के अनुरूप आचरणवाली । वह आलोचन मेरे मन को कामधेनु हो ॥१७२॥ (कलश--रोला)
मुमुक्षु जीव तीन लोक को जाननेवाले निर्विकल्प शुद्ध तत्त्व को भलीभाँति जानकर उसकी सिद्धि के हेतु शुद्ध शील का (चारित्र का) आचरण करके, सिद्धिरूपी स्त्री का स्वामी होता है (सिद्धिको प्राप्त करता है) ।तीन लोक के ज्ञायक निर्विकल्प तत्त्व को । जो मुमुक्षुजन जान उसी की सिद्धि के लिए । । शुद्ध शील आचरे रमे निज आतम में नित । सिद्धि प्राप्त कर मुक्तिवधु के स्वामी होते ॥१७३॥ (कलश--रोला)
तत्त्व में मग्न ऐसे जिनमुनि के हृदय-कमल की केसर में जो आनन्द-सहित विराजमान है, जो बाधा-रहित है, जो विशुद्ध है, जो कामदेव के बाणों की गहन (दुर्भेद्य) सेना को जला देने के लिये दावानल समान है और जिसने शुद्धज्ञानरूप दीपक द्वारा मुनियों के मनोगृह के घोर अंधकार का नाश किया है, उसे, साधुओं द्वारा वंद्य तथा जन्मार्णव को लाँघ जाने में नौकारूप उस शुद्ध तत्त्व को, मैं वंदन करता हूँ ।आत्मतत्त्व में मग्न मुनिजनों के मन में जो । वह विशुद्ध निर्बाध ज्ञानदीपक निज आतम ॥ मुनिमनतम का नाशक नौका भवसागर की । साधुजनों से वंद्य तत्त्व को वंदन करता ॥१७४॥ (कलश--रोला)
हम पूछते हैं कि जो समग्र बुद्धिमान होने पर भी दूसरे को 'यह नवीन पाप कर' ऐसा उपदेश देते हैं, वे क्या वास्तव में तपस्वी हैं ? अहो ! खेद है कि वे हृदय में विलसित शुद्धज्ञानरूप और सर्वोत्तम पिंडरूप इस पद को जानकर पुनः भी सरागता को प्राप्त होते हैं !बुद्धिमान होने पर भी क्या कोई तपस्वी । ऐसा कह सकता कि करो तुम नये पाप को ॥ अरे खेद आश्चर्य शुद्ध आतम को जाने । फिर भी ऐसा कहे समझ के बाहर है यह ॥१७५॥ (कलश--रोला)
तत्त्वों में वह सहज तत्त्व जयवन्त है, कि जो सदा अनाकुल है, निरन्तर सुलभ है, प्रकाशमान है, सम्यग्दृष्टियों को समता का घर है, परम-कला सहित विकसित निज गुणों से प्रफुल्लित (खिला हुआ) है, जिसकी सहज अवस्था स्फुटित (प्रकटित) है और निरन्तर निज महिमा में लीन है ।सब तत्त्वों में सहज तत्त्व निज आतम ही है । सदा अनाकुल सतत् सुलभ निज आतम ही है ॥ परमकला संपन्न प्रगट घर समता का जो । निज महिमारत आत्मतत्त्व जयवंत सदा है ॥१७६॥ (कलश--रोला)
सात तत्त्वों में सहज परम तत्त्व निर्मल है, सकल-विमल (सर्वथा-विमल) ज्ञान का आवास है, निरावरण है, शिव (कल्याणमय) है, स्पष्ट है, नित्य है, बाह्य प्रपंच से पराङ्मुख है और मुनि को भी मन से तथा वाणी से अति दूर है; उसे हम नमन करते हैं ।सात तत्त्व में प्रमुख सहज संपूर्ण विमल है । निरावरण शिव विशद नित्य अत्यंत अमल है ॥ उसे नमन जो अति दूर मुनि-मन-वचनों से । परपंचों से विलग आत्म आनन्द मगन है ॥१७७॥ (कलश--रोला)
जो (जिन) शान्त रसरूपी अमृत के समुद्र को (उछालने के लिये) प्रतिदिन उदयमान सुन्दर चन्द्र समान है और जिसने अतुल ज्ञानरूपी सूर्य की किरणों से मोह-तिमिर के समूह का नाश किया है, वह जिन जयवन्त है ।अरे शान्तरसरूपी अमृत के सागर को । नित्य उल्लसित करने को तुम पूर्णचन्द हो ॥ मोहतिमिर के नाशक दिनकर भी तो तुम हो । हे जिन निज में लीन सदा जयवंत जगत में ॥१७८॥ (कलश--रोला)
जिसने जन्म-जरा-मृत्यु के समूह को जीत लिया है, जिसने दारुण राग के समूह का हनन कर दिया है, जो पापरूपी महा अंधकार के समूह के लिये सूर्य समान है तथा जो परमात्मपद में स्थित है, वह जयवन्त है ।वे जिनेन्द्र जयवन्त परमपद में स्थित जो । जिनने जरा जनम-मरण को जीत लिया है ॥ अरे पापतम के नाशक ने राग-द्वेष का । निर्मूलन कर पूर्ण मूल से हनन किया है ॥१७९॥ इसप्रकार, सुकविजनरूपी कमलों के लिये जो सूर्य समान हैं और पाँच इन्द्रियों के विस्तार रहित देहमात्र जिन्हें परिग्रह था ऐसे श्री पद्मप्रभमलधारिदेव द्वारा रचित नियमसार की तात्पर्यवृत्ति नामक टीका में (श्रीमद्भगवत्कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत श्री नियमसार परमागम की निर्ग्रन्थ मुनिराज श्री पद्मप्रभमलधारिदेवविरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की टीका में) परम-आलोचना अधिकार नाम का सातवाँ श्रुतस्कन्ध समाप्त हुआ । |