
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथाखिलद्रव्यभावनोकर्मसंन्यासहेतुभूतशुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः कथ्यते । निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत् । पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च सखलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार-परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति । (कलश--मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः । अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ॥१८०॥ इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम् । क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायांसत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति । (कलश--शालिनी) प्रायश्चित्तमुक्त मुच्चैर्मुनीनां कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च । किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ॥१८१॥ अब समस्त द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म तथा नोकर्म के संन्यास के हेतुभूत शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है । यह, निश्चय-प्रायश्चित्त के स्वरूप का कथन है । पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काया के संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियों का निरोध, यह परिणति विशेष सो प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त (प्रचुररूप से निर्विकार चित्त) । अन्तर्मुखाकार परमसमाधि से युक्त, परम जिन-योगीश्वर, पापरूपी अटवी को (जलाने के लिये) अग्नि समान, पाँच इन्द्रियों के फैलाव-रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस-झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभ को यह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है । (कलश--हरिगीत)
मुनियों को स्वात्मा का चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुख में रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पाप को झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । यदि मुनियों को (स्वात्मा के अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पाप को उत्पन्न करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ?मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर । हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है ॥ वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य-चिन्तामूढ हों । कामार्त्त वे मुनिराज बाँधें पाप क्या आश्चर्य है ? ॥१८०॥ यहाँ (इस गाथा में) सकल कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ ऐसा निश्चय-प्रायश्चित्त कहा गया है । क्रोधादिक समस्त मोह-राग-द्वेषरूप विभाव-स्वभावों के क्षय के कारणभूत निज कारण-परमात्मा के स्वभाव की भावना होने पर निसर्ग-वृत्ति के कारण (स्वाभाविक-सहज परिणति होने के कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्मा के गुणात्मक ऐसे जो शुद्ध-अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूप के सहज ज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना, वह प्रायश्चित्त है । (कलश--रोला)
मुनियों को काम-क्रोधादि अन्य भावों के क्षय की जो संभावना अथवा तो अपने ज्ञान की जो संभावना (सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है । सन्तों ने आत्म-प्रवाद में ऐसा जाना है (जानकर कहा है ) ।
कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं । उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की ॥ प्रबल भावना ही है प्रायश्चित्त कहा है । आत्मप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ॥१८१॥ |