+ निश्चय-प्रायश्चित्त का स्वरूप -
वदसमिदिसीलसंजमपरिणामो करणणिग्गहो भावो ।
सो हवदि पायछित्तं अणवरयं चेव कायव्वो ॥113॥
कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं ।
पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ॥114॥
व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः करणनिग्रहो भावः ।
स भवति प्रायश्चित्तम् अनवरतं चैव कर्तव्यः ॥११३॥
क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां निर्ग्रहणम् ।
प्रायश्चित्तं भणितं निजगुणचिंता च निश्चयतः ॥११४॥
व्रत, समिति, संयम, शील, इन्द्रियरोध का जो भाव है ।
वह भाव प्रायश्चित्त है, अरु अनवरत कर्तव्य है ॥११३॥
क्रोधादि आत्म-विभाव के क्षय आदि की जो भावना ।
है नियत प्रायश्चित्त वह जिसमें स्वगुण की चिंतना ॥११४॥
अन्वयार्थ : [व्रतसमितिशीलसंयमपरिणामः] व्रत, समिति, शील और संयमरूप परिणाम तथा [करणनिग्रहः भावः] इन्द्रिय निग्रहरूप भाव [सः] वह [प्रायश्चित्तम्] प्रायश्चित्त [भवति] है [च एव] और वह [अनवरतं] निरंतर [कर्तव्यः] कर्तव्य है ।
[क्रोधादिस्वकीयभावक्षयप्रभृतिभावनायां] क्रोधआदि स्वकीय भावों के (अपने विभावभावों के) क्षयादिक की भावना में [निर्ग्रहणम्] रहना [च] और [निजगुणचिन्ता] निज गुणों का चिंतन करना वह [निश्चयतः] निश्चय से [प्रायश्चित्तं भणितम्] प्रायश्चित्त कहा है ।
Meaning : Thought-activity of observing (five) vows, (five kinds of) carefulness, character and self-control; or attentiveness to the restraint of senses, is expiation (Prasyashchitta). It should be practised constantly.
Being engaged, in the contemplation of destroying (or subsiding), etc., one's own (impure) thought-activities, anger, etc., as well as, meditation upon the attributes of one's own soul, is said to be expiation from the real point of view.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अथाखिलद्रव्यभावनोकर्मसंन्यासहेतुभूतशुद्धनिश्चयप्रायश्चित्ताधिकारः कथ्यते ।
निश्चयप्रायश्चित्तस्वरूपाख्यानमेतत् ।
पंचमहाव्रतपंचसमितिशीलसकलेन्द्रियवाङ्मनःकायसंयमपरिणामः पंचेन्द्रियनिरोधश्च सखलु परिणतिविशेषः, प्रायः प्राचुर्येण निर्विकारं चित्तं प्रायश्चित्तम्, अनवरतं चान्तर्मुखाकार-परमसमाधियुक्तेन परमजिनयोगीश्वरेण पापाटवीपावकेन पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्रपरिग्रहेण सहजवैराग्यप्रासादशिखरशिखामणिना परमागममकरंदनिष्यन्दिमुखपद्मप्रभेण कर्तव्य इति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
प्रायश्चित्तं भवति सततं स्वात्मचिंता मुनीनां
मुक्तिं यांति स्वसुखरतयस्तेन निर्धूतपापाः ।
अन्या चिंता यदि च यमिनां ते विमूढाः स्मरार्ताः
पापाः पापं विदधति मुहुः किं पुनश्चित्रमेतत् ॥१८०॥


इह हि सकलकर्मनिर्मूलनसमर्थनिश्चयप्रायश्चित्तमुक्तम् ।
क्रोधादिनिखिलमोहरागद्वेषविभावस्वभावक्षयकारणनिजकारणपरमात्मस्वभावभावनायांसत्यां निसर्गवृत्त्या प्रायश्चित्तमभिहितम्, अथवा परमात्मगुणात्मकशुद्धान्तस्तत्त्वस्वरूपसहजज्ञानादिसहजगुणचिंता प्रायश्चित्तं भवतीति ।
(कलश--शालिनी)
प्रायश्चित्तमुक्त मुच्चैर्मुनीनां
कामक्रोधाद्यन्यभावक्षये च ।
किं च स्वस्य ज्ञानसंभावना वा
सन्तो जानन्त्येतदात्मप्रवादे ॥१८१॥



अब समस्त द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म तथा नोकर्म के संन्यास के हेतुभूत शुद्धनिश्चय-प्रायश्चित्त अधिकार कहा जाता है ।

यह, निश्चय-प्रायश्चित्त के स्वरूप का कथन है ।

पाँच महाव्रतरूप, पाँच समितिरूप, शीलरूप और सर्व इन्द्रियों के तथा मन-वचन-काया के संयमरूप परिणाम तथा पाँच इन्द्रियों का निरोध, यह परिणति विशेष सो प्रायश्चित्त है । प्रायश्चित्त अर्थात् प्रायः चित्त (प्रचुररूप से निर्विकार चित्त) । अन्तर्मुखाकार परमसमाधि से युक्त, परम जिन-योगीश्वर, पापरूपी अटवी को (जलाने के लिये) अग्नि समान, पाँच इन्द्रियों के फैलाव-रहित देहमात्र परिग्रह के धारी, सहज वैराग्यरूपी महल के शिखर के शिखामणि समान और परमागमरूपी पुष्परस-झरते हुए मुखवाले पद्मप्रभ को यह प्रायश्चित्त निरंतर कर्तव्य है ।

(कलश--हरिगीत)
मुनिजनों के चित्त में जो स्वात्मा का निरन्तर ।
हो रहा है चिन्तवन बस यही प्रायश्चित्त है ॥
वे सन्त पावें मुक्ति पर जो अन्य-चिन्तामूढ हों ।
कामार्त्त वे मुनिराज बाँधें पाप क्या आश्चर्य है ? ॥१८०॥
मुनियों को स्वात्मा का चिंतन वह निरंतर प्रायश्चित्त है; निज सुख में रतिवाले वे उस प्रायश्चित्त द्वारा पाप को झाड़कर मुक्ति प्राप्त करते हैं । यदि मुनियों को (स्वात्मा के अतिरिक्त) अन्य चिन्ता हो तो वे विमूढ़ कामार्त पापी पुनः पाप को उत्पन्न करते हैं, इसमें क्या आश्चर्य है ?

यहाँ (इस गाथा में) सकल कर्मों को मूल से उखाड़ देने में समर्थ ऐसा निश्चय-प्रायश्चित्त कहा गया है ।

क्रोधादिक समस्त मोह-राग-द्वेषरूप विभाव-स्वभावों के क्षय के कारणभूत निज कारण-परमात्मा के स्वभाव की भावना होने पर निसर्ग-वृत्ति के कारण (स्वाभाविक-सहज परिणति होने के कारण) प्रायश्चित्त कहा गया है; अथवा, परमात्मा के गुणात्मक ऐसे जो शुद्ध-अंतःतत्त्वरूप (निज) स्वरूप के सहज ज्ञानादिक सहजगुण उनका चिंतन करना, वह प्रायश्चित्त है ।

(कलश--रोला)
कामक्रोध आदिक जितने भी अन्य भाव हैं ।
उनके क्षय की अथवा अपने ज्ञानभाव की ॥
प्रबल भावना ही है प्रायश्चित्त कहा है ।
आत्मप्रवाद पूर्व के ज्ञायक संतगणों ने ॥१८१॥
मुनियों को काम-क्रोधादि अन्य भावों के क्षय की जो संभावना अथवा तो अपने ज्ञान की जो संभावना (सम्यक् भावना) वह उग्र प्रायश्चित्त कहा है । सन्तों ने आत्म-प्रवाद में ऐसा जाना है (जानकर कहा है )