
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
चतुष्कषायविजयोपायस्वरूपाख्यानमेतत् । जघन्यमध्यमोत्तमभेदात्क्षमास्तिस्रो भवन्ति । अकारणादप्रियवादिनो मिथ्याद्रष्टेरकारणेनमां त्रासयितुमुद्योगो विद्यते, अयमपगतो मत्पुण्येनेति प्रथमा क्षमा । अकारणेन संत्रासकरस्यताडनवधादिपरिणामोऽस्ति, अयं चापगतो मत्सुकृतेनेति द्वितीया क्षमा । वधे सत्यमूर्तस्य परमब्रह्मरूपिणो ममापकारहानिरिति परमसमरसीभावस्थितिरुत्तमा क्षमा । आभिः क्षमाभिःक्रोधकषायं जित्वा, मानकषायं मार्दवेन च, मायाकषायं चार्जवेण, परमतत्त्वलाभसन्तोषेण लोभकषायं चेति । तथा चोक्तं श्रीगुणभद्रस्वामिभिः- (कलश--वसंततिलका) चित्तस्थमप्यनवबुद्धय हरेण जाडयात् क्रुद्ध्वा बहिः किमपि दग्धमनङ्गबुद्धया । घोरामवाप स हि तेन कृतामवस्थां क्रोधोदयाद्भवति कस्य न कार्यहानिः ॥ (कलश--वसंततिलका) चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुच्येत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हतिं महतीं करोति ॥ (कलश--अनुष्टुभ्) भेयं मायामहागर्तान्मिथ्याघनतमोमयात् । यस्मिन् लीना न लक्ष्यन्ते क्रोधादिविषमाहयः ॥ (कलश--हरिणी) वनचरभयाद्धावन् दैवाल्लताकुलवालधिः किल जडतया लोलो वालव्रजेऽविचलं स्थितः । बत स चमरस्तेन प्राणैरपि प्रवियोजितः परिणततृषां प्रायेणैवंविधा हि विपत्तयः ॥ तथा हि - (कलश--आर्या) क्षमया क्रोधकषायं मानकषायं च मार्दवेनैव । मायामार्जवलाभाल्लोभकषायं च शौचतो जयतु ॥१८२॥ यह, चार कषायों पर विजय प्राप्त करने के उपाय के स्वरूप का कथन है । जघन्य, मध्यम और उत्तम ऐसे (तीन) भेदों के कारण क्षमा तीन (प्रकार की) है ।
(कलश--रोला)
कामदेव (अपने) चित्त में रहने पर भी (अपनी) जड़ता के कारण उसे न पहिचानकर, शंकर ने क्रोधी होकर बाह्य में किसी को कामदेव समझकर उसे जला दिया । (चित्त में रहनेवाला कामदेव तो जीवित होने के कारण) उसने की हुई घोर अवस्था को (कामविह्वल दशा को) शंकर प्राप्त हुए । क्रोध के उदयसे (क्रोध उत्पन्न होने से) किसे कार्यहानि नहीं होती ?अरे हृदय में कामभाव के होने पर भी । क्रोधित होकर किसी पुरुष को काम समझकर ॥ जला दिया हो महादेव ने फिर भी विह्वल । क्रोधभाव से नहीं हुई है किसकी हानि ?॥४६॥ (कलश--वीर)
(युद्ध में भरत ने बाहुबलि पर चक्र छोड़ा परन्तु वह चक्र बाहुबलि के दाहिने हाथ में आकर स्थिर हो गया ।) अपने दाहिने हाथ में स्थित (उस) चक्र को छोड़कर जब बाहुबलि ने प्रव्रज्या ली तभी (तुरन्त ही) वे उस कारण मुक्ति प्राप्त कर लेते, परन्तु वे (मान के कारण मुक्ति प्राप्त न करके) वास्तव में दीर्घ काल तक प्रसिद्ध (मानकृत) क्लेश को प्राप्त हुए । थोड़ा भी मान महा हानि करता है !अरे हस्तगत चक्ररत्न को बाहुबली ने त्याग दिया । यदि न होता मान उन्हें तो मुक्तिरमा तत्क्षण वरती ॥ किन्तु मान के कारण ही वे एक बरस तक खड़े रहे । इससे होता सिद्ध तनिक सा मान अपरिमित दुख देता॥४७॥ (कलश--वीर)
जिस (गड्ढे) में छिपे हुए क्रोधादिक भयंकर सर्प देखे नहीं जा सकते ऐसा जो मिथ्यात्वरूपी घोर अंधकारवाला मायारूपी महान गड्ढा उससे डरते रहना योग्य है ।अरे देखना सहज नहीं क्रोधादि भयंकर सांपों को । क्योंकि वे सब छिपे हुए हैं मायारूपी गर्तों में ॥ मिथ्यातम है घोर भयंकर डरते रहना ही समुचित । यह सब माया की महिमा है बचके रहना ही समुचित ॥४८॥ (कलश--वीर)
वनचर के भय से भागती हुई सुरा गाय की पूँछ दैवयोग से बेल में उलझ जाने पर जड़ता के कारण बालों के गुच्छे के प्रति लोलुपतावाली वह गाय (अपने सुन्दर बालों को न टूटने देने के लोभ में) वहाँ अविचलरूप से खड़ी रह गई, और अरेरे ! उस गाय को वनचर द्वारा प्राण से भी विमुक्त कर दिया गया ! जिन्हें तृष्णा परिणमित हुई है उन्हें प्रायः ऐसी ही विपत्तियाँ आती हैं ।वनचर भय से भाग रही पर उलझी पूँछ लताओं में । दैवयोग से चमर गाय वह मुग्ध पूँछ के बालों में ॥ खड़ी रही वह वहीं मार डाला वनचर ने उसे वहीं । इसप्रकार की विकट विपत्ति मिलती सभी लोभियों को ॥४९॥ और - (कलश--सोरठा)
क्रोध-कषाय को क्षमा से, मान-कषाय को मार्दव से ही, माया को आर्जव की प्राप्ति से और लोभ-कषाय को शौच से (सन्तोष से) जीतो ।
क्षमाभाव से क्रोध, मान मार्दव भाव से । जीतो माया-लोभ आर्जव एवं शौच से ॥१८२॥ |