
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र शुद्धज्ञानस्वीकारवतः प्रायश्चित्तमित्युक्तम् । उत्कृष्टो यो विशिष्टधर्मः स हि परमबोधः इत्यर्थः । बोधो ज्ञानंचित्तमित्यनर्थान्तरम् । अत एव तस्यैव परमधर्मिणो जीवस्य प्रायः प्रकर्षेण चित्तं । यःपरमसंयमी नित्यं ताद्रशं चित्तं धत्ते, तस्य खलु निश्चयप्रायश्चित्तं भवतीति । (कलश--शालिनी) यः शुद्धात्मज्ञानसंभावनात्मा प्रायश्चित्तमत्र चास्त्येव तस्य । निर्धूतांहःसंहतिं तं मुनीन्द्रं वन्दे नित्यं तद्गुणप्राप्तयेऽहम् ॥१८३॥ यहाँ, 'शुद्ध ज्ञान के स्वीकारवाले को प्रायश्चित्त है' ऐसा कहा है । उत्कृष्ट ऐसा जो विशिष्ट धर्म वह वास्तव में परम बोध है, ऐसा अर्थ है । बोध, ज्ञान और चित्त भिन्न पदार्थ नहीं हैं । ऐसा होने से ही उसी परमधर्मी जीव को प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूप से चित्त (ज्ञान) है । जो परमसंयमी ऐसे चित्त को नित्य धारण करता है, उसे वास्तव में निश्चय-प्रायश्चित्त है । जीव धर्मी है और ज्ञानादिक उसके धर्म हैं । परम चित्त अथवा परम ज्ञान स्वभाव जीव का उत्कृष्ट विशेष धर्म है । इसलिये स्वभाव - अपेक्षा से जीव-द्रव्य को प्रायः चित्त है अर्थात् प्रकृष्टरूप से ज्ञान है । जो परम-संयमी ऐसे चित्त की (परमज्ञानस्वभाव की) श्रद्धा करता है तथा उसमें लीन रहता है, उसे निश्चय-प्रायश्चित्त है । (कलश--हरिगीत)
इस लोक में जो (मुनीन्द्र) शुद्धात्मज्ञान की सम्यक् भावनावन्त है, उसे प्रायश्चित्त है ही । जिसने पापसमूह को झाड़ दिया है ऐसे उस मुनीन्द्र को मैं उसके गुणों की प्राप्ति हेतु नित्य वंदन करता हूँ ।
शुद्धात्मा के ज्ञान की संभावना जिस संत में । आत्मरत उस सन्त को तो नित्य प्रायश्चित्त है ॥ धो दिये सब पाप अर निज में रमे जो संत नित । मैं नमूँ उनको उन गुणों को प्राप्त करने के लिए ॥१८३॥ |