
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि परमतपश्चरणनिरतपरमजिनयोगीश्वराणां निश्चयप्रायश्चित्तम् । एवं समस्ताचरणानां परमाचरणमित्युक्तम् । बहुभिरसत्प्रलापैरलमलम् । पुनः सर्वं निश्चयव्यवहारात्मकपरमतपश्चरणात्मकं परम-जिनयोगीनामासंसारप्रतिबद्धद्रव्यभावकर्मणां निरवशेषेण विनाशकारणं शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमिति हे शिष्य त्वं जानीहि । (कलश--द्रुतविलंबित) अनशनादितपश्चरणात्मकं सहजशुद्धचिदात्मविदामिदम् । सहजबोधकलापरिगोचरं सहजतत्त्वमघक्षयकारणम् ॥१८४॥ (शालिनी) प्रायश्चित्तं ह्युत्तमानामिदं स्यात्- स्वद्रव्येऽस्मिन् चिन्तनं धर्मशुक्लम् । कर्मव्रातध्वान्तसद्बोधतेजो लीनं स्वस्मिन्निर्विकारे महिम्नि ॥१८५॥ (कलश--मंदाक्रांता) आत्मज्ञानाद्भवति यमिनामात्मलब्धिः क्रमेण ज्ञानज्योतिर्निहतकरणग्रामघोरान्धकारा । कर्मारण्योद्भवदवशिखाजालकानामजस्रं प्रध्वंसेऽस्मिन् शमजलमयीमाशु धारां वमन्ती ॥१८६॥ (कलश--उपजाति) अध्यात्मशास्त्रामृतवारिराशे- र्मयोद्धृता संयमरत्नमाला । बभूव या तत्त्वविदां सुकण्ठे सालंकृतिर्मुक्ति वधूधवानाम् ॥१८७॥ (कलश--उपेन्द्रवज्रा) नमामि नित्यं परमात्मतत्त्वं मुनीन्द्रचित्ताम्बुजगर्भवासम् । विमुक्ति कांतारतिसौख्यमूलं विनष्टसंसारद्रुमूलमेतत् ॥१८८॥ यहाँ ऐसा कहा है कि परम तपश्चरण में लीन परम जिनयोगीश्वरों को निश्चय-प्रायश्चित्त है; इसप्रकार निश्चय-प्रायश्चित्त समस्त आचरणों में परम आचरण है ऐसा कहा है । बहुत असत् प्रलापों से बस होओ, बस होओ । निश्चय व्यवहार स्वरूप परम-तपश्चरणात्मक ऐसा जो परम जिनयोगियों को अनादि संसार से बँधे हुए द्रव्य-भाव-कर्मों के निरवशेष विनाश का कारण वह सब शुद्ध निश्चय-प्रायश्चित्त है ऐसा, हे शिष्य ! तू जान । (कलश--दोहा)
अनशनादि तपश्चरणात्मक (स्वरूप प्रतपनरूप से परिणमित, प्रतापवन्त अर्थात् उग्र स्वरूप परिणति से परिणमित) ऐसा यह १सहज-शुद्ध-चैतन्य स्वरूप को जाननेवालों का सहजज्ञान कला परिगोचर सहजतत्त्व २अघ-क्षय का कारण है ।अनशनादि तप चरणमय और ज्ञान से गम्य । अघक्षयकारण तत्त्वनिज सहजशुद्धचैतन्य ॥१८४॥ (कलश--रोला)
जो (प्रायश्चित्त) इस स्वद्रव्य का ❃धर्म और शुक्लरूप चिंतन है, जो कर्मसमूह के अन्धकार को नष्ट करने के लिये सम्यग्ज्ञानरूपी तेज है तथा जो अपनी निर्विकार महिमा में लीन है -- ऐसा यह प्रायश्चित्त वास्तव में उत्तम पुरुषों को होता है ।अरे प्रायश्चित्त उत्तम पुरुषों को जो होता । धर्मध्यानमय शुक्लध्यानमय चिन्तन है वह ॥ कर्मान्धकार का नाशक यह सद्बोध तेज है । निर्विकार अपनी महिमा में लीन सदा है ॥१८५॥ (कलश--हरिगीत)
यमियों (संयमियों) को आत्मज्ञान से क्रमशः आत्मलब्धि (आत्माकी प्राप्ति) होती है, कि जिस आत्मलब्धि ने ज्ञान-ज्योति द्वारा इन्द्रिय समूह के घोर-अन्धकारका नाश किया है तथा जो आत्मलब्धि कर्म-वन से उत्पन्न (भवरूपी) दावानल की शिखाजाल का (शिखाओं के समूह का) नाश करने के लिये उस पर सतत शमजलमयी धारा को तेजी से छोड़ती है, बरसाती है ।आत्म की उपलब्धि होती आतमा के ज्ञान से । मुनिजनों के करणरूपी घोरतम को नाशकर ॥ कर्मवन उद्भव भवानल नाश करने के लिए । वह ज्ञानज्योति सतत् शमजलधार को है छोड़ती ॥१८६॥ (कलश--भुजंगप्रयात)
अध्यात्म-शास्त्ररूपी अमृत-समुद्र में से मैंने जो संयमरूपी रत्नमाला बाहर निकाली है वह (रत्नमाला) मुक्तिवधू के वल्लभ ऐसे तत्त्वज्ञानियों के सुकण्ठ का आभूषण बनी है ।जिनशास्त्ररूपी अमृत उदधि से । बाहर हुई संयम रत्नमाला ॥ मुक्तिवधू वल्लभ तत्त्वज्ञानी । के कण्ठ की वह शोभा बनी है ॥१८७॥ (कलश--भुजंगप्रयात)
मुनीन्द्रों के चित्तकमल (हृदयकमल) के भीतर जिसका वास है, जो विमुक्तिरूपी कान्ता के रति सौख्य का मूल है (जो मुक्ति के अतीन्द्रिय आनन्द का मूल है ) और जिसने संसार-वृक्ष के मूल का विनाश किया है, ऐसे इस परमात्म-तत्त्व को मैं नित्य नमन करता हूँ ।भवरूप पादप जड़ का विनाशक । मुनीराज के चित कमल में रहे नित ॥ अर मुक्तिकांतारतिजन्य सुख का । जो मूल आतम उसको नमन हो ॥१८८॥ १ सहजज्ञानकलापरिगोचर = सहज ज्ञानकी कला द्वारा सर्व प्रकारसे ज्ञात होने योग्य २अघ = अशुद्धि; दोष; पाप । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तवमें अघ हैं ।) ❃धर्मध्यान और शुक्लध्यानरूप जो स्व-द्रव्यचिंतन वह प्रायश्चित्त है । |