
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र प्रसिद्धशुद्धकारणपरमात्मतत्त्वे सदान्तर्मुखतया प्रतपनं यत्तत्तपः प्रायश्चित्तंभवतीत्युक्तम् । आसंसारत एव समुपार्जितशुभाशुभकर्मसंदोहो द्रव्यभावात्मकः पंचसंसारसंवर्धनसमर्थःपरमतपश्चरणेन भावशुद्धिलक्षणेन विलयं याति, ततः स्वात्मानुष्ठाननिष्ठं परमतपश्चरणमेव शुद्धनिश्चयप्रायश्चित्तमित्यभिहितम् । (कलश--मंदाक्रांता) प्रायश्चित्तं न पुनरपरं कर्म कर्मक्षयार्थं प्राहुः सन्तस्तप इति चिदानंदपीयूषपूर्णम् । आसंसारादुपचितमहत्कर्मकान्तारवह्नि- ज्वालाजालं शमसुखमयं प्राभृतं मोक्षलक्ष्म्याः ॥१८९॥ यहाँ (इस गाथा में), प्रसिद्ध शुद्ध कारण परमात्म तत्त्व में सदा अन्तर्मुख रहकर जो प्रतपन वह तप प्रायश्चित्त है (शुद्धात्म स्वरूप में लीन रहकर प्रतपना-प्रतापवन्त वर्तना सो तप है और वह तप प्रायश्चित्त है ) ऐसा कहा है । अनादि संसार से ही उपार्जित द्रव्य-भावात्मक शुभाशुभ कर्मों का समूह, कि जो पाँच प्रकार के (पाँच परावर्तनरूप) संसार का संवर्धन करने में समर्थ है वह, भावशुद्धिलक्षण (भावशुद्धि जिसका लक्षण है ऐसे) परम तपश्चरण से विलय को प्राप्त होता है; इसलिये स्वात्मानुष्ठाननिष्ठ (निज आत्मा के आचरण में लीन) परम तपश्चरण ही शुद्ध निश्चय प्रायश्चित्त है -- ऐसा कहा गया है । (कलश--भुजंगप्रयात)
जो (तप) अनादि संसार से समृद्ध हुई कर्मों की महा अटवी को जला देने के लिये अग्नि की ज्वाला के समूह समान है, शम सुखमय है और मोक्ष-लक्ष्मी के लिये भेंट है, उस चिदानन्दरूपी अमृत से भरे हुए तप को संत कर्मक्षय करनेवाला प्रायश्चित्त कहते हैं, परन्तु अन्य किसी कार्य को नहीं ।
रे रे अनादि संसार से जो समृद्ध कर्मों का वन भयंकर । उसे भस्म करने में है सबल जो अर मोक्षलक्ष्मी की भेंट है जो ॥ शमसुखमयी चैतन्य अमृत आनन्दधारा से जो लबालब । ऐसा जो तप है उसे संतगण सब प्रायश्चित कहते हैं निरन्तर ॥१८९॥ |