
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्र सकलभावानामभावं कर्तुं स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यानमेव समर्थमित्युक्तम् । अखिलपरद्रव्यपरित्यागलक्षणलक्षिताक्षुण्णनित्यनिरावरणसहजपरमपारिणामिकभाव -भावनया भावान्तराणां चतुर्णामौदयिकौपशमिकक्षायिकक्षायोपशमिकानां परिहारं कर्तुमत्यासन्नभव्यजीवः समर्थो यस्मात्, तत एव पापाटवीपावक इत्युक्तम् । अतः पंच-महाव्रतपंचसमितित्रिगुप्तिप्रत्याख्यानप्रायश्चित्तालोचनादिकं सर्वं ध्यानमेवेति । (कलश--मंदाक्रांता) यः शुद्धात्मन्यविचलमनाः शुद्धमात्मानमेकं नित्यज्योतिःप्रतिहततमःपुंजमाद्यन्तशून्यम् । ध्यात्वाजस्रं परमकलया सार्धमानन्दमूर्तिं जीवन्मुक्तो भवति तरसा सोऽयमाचारराशिः ॥१९०॥ यहाँ (इस गाथा में), निज-आत्मा जिसका आश्रय है, ऐसा निश्चय धर्मध्यान ही सर्व भावों का अभाव करने में समर्थ है ऐसा कहा है । समस्त पर-द्रव्यों के परित्यागरूप लक्षण से लक्षित अखण्ड-नित्यनिरावरण-सहज परमपारिणामिकभाव की भावना से औदयिक, औपशमिक, क्षायिक तथा क्षायोपशमिक इन चार भावांतरों का परिहार करने में अति-आसन्नभव्य जीव समर्थ है, इसीलिये उस जीव को पापाटवी-पावक (पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि) कहा है; ऐसा होने से पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्ति, प्रत्याख्यान, प्रायश्चित्त, आलोचना आदि सब ध्यान ही है (परमपारिणामिक भाव की भावनारूप जो ध्यान वही महाव्रत-प्रायश्चित्तादि सब कुछ है ) (कलश--रोला)
जिसने नित्य ज्योति द्वारा तिमिरपुंज का नाश किया है, जो आदि-अंत रहित है, जो परम कला सहित है तथा जो आनन्दमूर्ति है, ऐसे एक शुद्ध आत्मा को जो जीव शुद्ध आत्मा में अविचल मनवाला होकर निरन्तर ध्याता है, सो यह आचारराशि जीव शीघ्र जीवन्मुक्त होता है ।
परमकला युत शुद्ध एक आनन्दमूर्ति है । तमनाशक जो नित्यज्योति आद्यन्त शून्य है ॥ उस आतम को जो भविजन अविचल मनवाला । ध्यावे तो वह शीघ्र मोक्ष पदवी को पाता ॥१९०॥ |