+ रागद्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता -
जस्स रागो दु दोसो दु विगडिं ण जणेइ दु ।
तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे ॥128॥
यस्य रागस्तु द्वेषस्तु विकृतिं न जनयति तु ।
तस्य सामायिकं स्थायि इति केवलिशासने ॥१२८॥
नहिं राग अथवा द्वेषसे जो संयमी विकृति लहे ।
स्थायी सामायिक है उसे, यों केवलीशासन कहे ॥१२८॥
अन्वयार्थ : [यस्य] जिसे [रागः तु] राग या [द्वेषः तु] द्वेष (उत्पन्न न होता हुआ) [विकृतिं] विकृति [न तु जनयति] उत्पन्न नहीं करता, [तस्य] उसे [सामायिकं] सामायिक [स्थायि] स्थायी है [इति केवलिशासने] ऐसा केवली के शासन में कहा है ।
Meaning : He, in whom attachment and aversion do not create any disturbance, (is said to have) steadfast equanimity, according to the preaching of the omniscient,

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि रागद्वेषाभावादपरिस्पंदरूपत्वं भवतीत्युक्तम् ।

यस्य परमवीतरागसंयमिनः पापाटवीपावकस्य रागो वा द्वेषो वा विकृतिंनावतरति, तस्य महानन्दाभिलाषिणः जीवस्य पंचेन्द्रियप्रसरवर्जितगात्रमात्र-परिग्रहस्य सामायिकनामव्रतं शाश्वतं भवतीति केवलिनां शासने प्रसिद्धं भवतीति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
रागद्वेषौ विकृतिमिह तौ नैव कर्तुं समर्थौ
ज्ञानज्योतिःप्रहतदुरितानीकघोरान्धकारे ।
आरातीये सहजपरमानन्दपीयूषपूरे
तस्मिन्नित्ये समरसमये को विधिः को निषेधः ॥२१३॥



यहाँ रागद्वेष के अभाव से अपरिस्पंदरूपता होती है ऐसा कहा है ।

पापरूपी अटवी को जलाने में अग्नि समान ऐसे जिस परमवीतराग संयमी को राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता, उस महा आनन्द के अभिलाषी जीव को, कि जिसे पाँच इन्द्रियों के फैलाव रहित देहमात्र परिग्रह है उसे, सामायिक नाम का व्रत शाश्वत है ऐसा केवलियों के शासन में प्रसिद्ध है ।

(कलश--रोला)
किया पापतम नाश ज्ञान-ज्योति से जिसने ।
परम सुखामृतपूर आतमा निकट जहाँ है ॥
राग-द्वेष न समर्थ उसे विकृत करने में ।
उस समरसमय आतम में है विधि-निषेध क्या ॥२१३॥
जिसने ज्ञान-ज्योति द्वारा पाप-समूहरूपी घोर-अंधकार का नाश किया है ऐसा सहज परमानन्दरूपी अमृत का पूर (ज्ञानानन्दस्वभावी आत्म-तत्त्व) जहाँ निकट है, वहाँ वे राग-द्वेष विकृति करने में समर्थ नहीं ही है । उस नित्य (शाश्वत) समरसमय आत्मतत्त्व में विधि क्या और निषेध क्या ? (समरसस्वभावी आत्मतत्त्व में 'यह करने योग्य है और यह छोड़ने योग्य है' ऐसे विधि-निषेध के विकल्परूप स्वभाव न होने से उस आत्म-तत्त्व का दृढ़ता से आलम्बन लेनेवाले मुनि को स्वभाव-परिणमन होने के कारण समरसरूप परिणाम होते हैं, विधि-निषेध के विकल्परूप / राग-द्वेषरूप परिणाम नहीं होते ।)

– अपरिस्पंदरूपता = अकंपता; अक्षुब्धता; समता ।
विकृति = विकार; स्वाभाविक परिणति से विरुद्ध परिणति । (परम वीतराग-संयमी को समता स्वभावी शुद्धात्म-द्रव्य का दृढ़ आश्रय होने से विकृतिभूत / विभावभूत विषमता / राग-द्वेष-परिणति नहीं होती, परन्तु प्रकृतिभूत / स्वभावभूत समता-परिणाम होता है ।)