+ अवश परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य -
ण वसो अवसो अवसस्स कम्म वावस्सयं ति बोद्धव्वं ।
जुत्ति त्ति उवाअं ति य णिरवयवो होदि णिज्जुत्ती ॥142॥
न वशो अवशः अवशस्य कर्म वाऽवश्यकमिति बोद्धव्यम् ।
युक्ति रिति उपाय इति च निरवयवो भवति निरुक्ति : ॥१४२॥
जो वश नहीं वह 'अवश', आवश्यक अवश का कर्म है ।
वह युक्ति या उपाय है, निरवयव कर्ता धर्म है ॥१४२॥
अन्वयार्थ : [न वशः अवशः] जो (अन्य के) वश नहीं है वह 'अवश' है [वा] और [अवशस्य कर्म] अवश का कर्म वह [आवश्यकम्] 'आवश्यक' है [इति बोद्धव्यम्] ऐसा जानना; [युक्तिः इति] वह (अशरीरी होनेकी) युक्ति है, [उपायः इति च] वह (अशरीर होनेका) उपाय है, [निरवयवः भवति] उससे जीव निरवयव (अर्थात् अशरीर) होता है । [निरुक्तिः] ऐसी निरुक्ति है ।
Meaning :  He, who does not depend (upon others) is called avasha (Independent). The action of an Avasha should be known to be Avashyaka (Independent action). This is the reason, the way and the (Ideal, i.e.,) liberation from material bodies. It is the derivation (Nirukti) (of the word avashyaka).

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अवशस्य परमजिनयोगीश्वरस्य परमावश्यककर्मावश्यं भवतीत्यत्रोक्तम् ।

यो हि योगी स्वात्मपरिग्रहादन्येषां पदार्थानां वशं न गतः, अत एव अवशइत्युक्त:, अवशस्य तस्य परमजिनयोगीश्वरस्य निश्चयधर्मध्यानात्मकपरमावश्यककर्मावश्यं भवतीति बोद्धव्यम् । निरवयवस्योपायो युक्ति : । अवयवः कायः, अस्याभावात्अवयवाभावः । अवशः परद्रव्याणां निरवयवो भवतीति निरुक्ति : व्युत्पत्तिश्चेति ।
(कलश--मंदाक्रांता)
योगी कश्चित्स्वहितनिरतः शुद्धजीवास्तिकायाद्
अन्येषां यो न वश इति या संस्थितिः सा निरुक्ति : ।
तस्मादस्य प्रहतदुरितध्वान्तपुंजस्य नित्यं
स्फूर्जज्ज्योतिः स्फुटितसहजावस्थयाऽमूर्तता स्यात् ॥२३९॥



यहाँ, अवश परम जिनयोगीश्वर को परम आवश्यक कर्म अवश्य है, ऐसा कहा है ।

जो योगी निज आत्मा के परिग्रह के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता और इसीलिये जिसे 'अवश' कहा जाता है, उस अवश परम जिनयोगीश्वर को निश्चय धर्म-ध्यान स्वरूप परम-आवश्यक - कर्म अवश्य है ऐसा जानना । (वह परम-आवश्यक-कर्म ) निरवयवपने का उपाय है, युक्ति है । अवयव अर्थात् काय; उसका (काय का) अभाव वह अवयव का अभाव (निरवयवपना) । पर-द्रव्यों को अवश जीव निरवयव होता है (जो जीव पर-द्रव्यों को वश नहीं होता वह अकाय होता है) । इसप्रकार निरुक्ति (व्युत्पत्ति) है ।

(कलश--रोला)
निज आतम से भिन्न किसी के वश में न हो ।
स्वहित निरत योगी नित ही स्वाधीन रहे जो ॥
दुरिततिमिरनाशक अमूर्त्त ही वह योगी है ।
यही निरुक्तिक अर्थ सार्थक कहा गया है ॥२३९॥
कोई योगी स्वहित में लीन रहता हुआ शुद्ध जीवास्तिकाय के अतिरिक्त अन्य पदार्थों के वश नहीं होता । इसप्रकार जो सुस्थित रहना सो निरुक्ति (अवशपने का व्युत्पत्ति-अर्थ ) है । ऐसा करने से (अपने में लीन रहकर पर को वश न होने से ) दुरितरूपी तिमिर पुंज का जिसने नाश किया है ऐसे उस योगी को सदा प्रकाशमान ज्योति द्वारा सहज अवस्था प्रगट होने से अमूर्तपना होता है ।


अवश = पर के वश न हों ऐसे; स्ववश; स्वाधीन; स्वतंत्र ।
दुरित = दुष्कृत; दुष्कर्म । (पाप तथा पुण्य दोनों वास्तव में दुरित हैं ।)