+ भेदोपचार - रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं -
वट्टदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण ।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे ॥143॥
वर्तते यः स श्रमणोऽन्यवशो भवत्यशुभभावेन ।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत ॥१४३॥
वर्ते अशुभ परिणाममें, वह श्रमण है वश अन्यके ।
अतएव आवश्यकस्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४३॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [अशुभभावेन] अशुभ भाव सहित[वर्तते] वर्तता है, [सः श्रमणः] वह श्रमण [अन्यवशः भवति] अन्यवश है; [तस्मात्] इसलिये [तस्य तु] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यक-स्वरूप कर्म [न भवेत्] नहीं है ।
Meaning : A saint, who engages himself in evil thoughtactivities, and depends upon other (objects), does not therefore possess the distinctive feature of Independent Action.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
इह हि भेदोपचाररत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्यावशत्वं न समस्तीत्युक्तम् । अप्रशस्तरागाद्यशुभभावेन यः श्रमणाभासो द्रव्यलिङ्गी वर्तते स्वस्वरूपादन्येषांपरद्रव्याणां वशो भूत्वा, ततस्तस्य जघन्यरत्नत्रयपरिणतेर्जीवस्य स्वात्माश्रयनिश्चयधर्मध्यान-लक्षणपरमावश्यककर्म न भवेदिति अशनार्थं द्रव्यलिङ्गं गृहीत्वा स्वात्मकार्यविमुखः सन् परमतपश्चरणादिकमप्युदास्य जिनेन्द्रमन्दिरं वा तत्क्षेत्रवास्तुधनधान्यादिकं वा सर्वमस्मदीयमिति मनश्चकारेति ।
(कलश--मालिनी)
अभिनवमिदमुच्चैर्मोहनीयं मुनीनां
त्रिभुवनभुवनान्तर्ध्वांतपुंजायमानम् ।
तृणगृहमपि मुक्त्वा तीव्रवैराग्यभावाद्
वसतिमनुपमां तामस्मदीयां स्मरन्ति ॥२४०॥
(कलश--शार्दूलविक्रीडित)
कोपि क्वापि मुनिर्बभूव सुकृती काले कलावप्यलं
मिथ्यात्वादिकलंकपंकरहितः सद्धर्मरक्षामणिः ।
सोऽयं संप्रति भूतले दिवि पुनर्देवैश्च संपूज्यते
मुक्तानेकपरिग्रहव्यतिकरः पापाटवीपावकः ॥२४१॥
(कलश--शिखरिणी)
तपस्या लोकेस्मिन्निखिलसुधियां प्राणदयिता
नमस्या सा योग्या शतमखशतस्यापि सततम् ।
परिप्राप्यैतां यः स्मरतिमिरसंसारजनितं
सुखं रेमे कश्चिद्बत कलिहतोऽसौ जडमतिः ॥२४२॥
(कलश--आर्या)
अन्यवशः संसारी मुनिवेषधरोपि दुःखभाङि्नत्यम् ।
स्ववशो जीवन्मुक्त : किंचिन्न्यूनो जिनेश्वरादेषः ॥२४३॥
(कलश--आर्या)
अत एव भाति नित्यं स्ववशो जिननाथमार्गमुनिवर्गे ।
अन्यवशो भात्येवं भृत्यप्रकरेषु राजवल्लभवत् ॥२४४॥



यहाँ, भेदोपचार - रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को अवशपना नहीं है -- ऐसा कहा है ।

जो श्रमणाभास - द्रव्यलिंगी अप्रशस्त रागादिरूप अशुभभाव सहित वर्तता है, वह निज स्वरूप से अन्य (भिन्न) ऐसे परद्रव्यों के वश है; इसलिये उस जघन्य रत्नत्रय परिणतिवाले जीव को स्वात्माश्रित निश्चय - धर्म-ध्यानस्वरूप परम - आवश्यक - कर्म नहीं है । (वह श्रमणाभास ) भोजन हेतु द्रव्यलिंग ग्रहण करके स्वात्म-कार्य से विमुख रहता हुआ परम तपश्चरणादि के प्रति भी उदासीन (लापरवाह) रहकर जिनेन्द्र मन्दिर अथवा उसका क्षेत्र, मकान, धन, धान्यादिक सब हमारा है ऐसी बुद्धि करता है ।

(कलश--ताटंक)
त्रिभुवन घर में तिमिर पुंज सम मुनिजन का यह घन नव मोह ।
यह अनुपम घर मेरा है- यह याद करें निज तृण घर छोड़ ॥२४०॥
त्रिलोकरूपी मकान में रहे हुए (महा) तिमिरपुंज जैसा मुनियों का यह (कोई) नवीन तीव्र मोहनीय है कि (पहले) वे तीव्र वैराग्यभाव से घास के घर को भी छोड़कर (फिर) 'हमारा वह अनुपम घर !' ऐसा स्मरण करते हैं ।

(कलश--ताटंक)
ग्रन्थ रहित निर्ग्रंथ पाप बन दहें पुजें इस भूतल में ।
सत्यधर्म के रक्षामणि मुनि विरहित मिथ्यामल कलि में॥२४१॥
कलिकाल में भी कहीं कोई भाग्यशाली जीव मिथ्यात्वादिरूप मल कीचड़ से रहित और *सद्धर्मरक्षामणि ऐसा समर्थ मुनि होता है । जिसने अनेक परिग्रहों के विस्तार को छोड़ा है और जो पापरूपी अटवी को जलानेवाली अग्नि है ऐसा यह मुनि इस काल भूतल में तथा देवलोक में देवों से भी भलीभाँति पुजाता है ।

(कलश--ताटंक)
मतिमानों को अतिप्रिय एवं शत इन्द्रों से अर्चित तप ।
उसको भी पाकर जो मन्मथ वश है कलि से घायल वह ॥२४२॥
इस लोक में तपश्चर्या समस्त सुबुद्धियों को प्राणप्यारी है; वह योग्य तपश्चर्या सो इन्द्रों को भी सतत वंदनीय है । उसे प्राप्त करके जो कोई जीव कामान्धकार युक्त संसार-जनित सुख में रमता है, वह जड़मति अरे रे ! कलि से हना हुआ है (कलिकाल से घायल हुआ है )

(कलश--ताटंक)
मुनि होकर भी अरे अन्यवश संसारी है, दुखमय है ।
और स्ववशजन सुखी मुक्त रे बस जिनवर से कुछ कम है॥२४३॥
जो जीव अन्यवश है वह भले मुनिवेशधारी हो तथापि संसारी है, नित्य दुःख का भोगनेवाला है; जो जीव स्ववश है वह जीवन्मुक्त है, जिनेश्वर से किंचित् न्यून है (उसमें जिनेश्वरदेव की अपेक्षा थोड़ी-सी कमी है)

(कलश--ताटंक)
अतःएव श्री जिनवर पथ में स्ववश मुनि शोभा पाते ।
और अन्यवश मुनिजन तो बस चमचों सम शोभा पाते॥२४४॥
ऐसा होने से ही जिननाथ के मार्ग में मुनिवर्ग में स्ववश मुनि सदा शोभा देता है; और अन्यवश मुनि नौकर के समूहों में *राजवल्लभ नौकर समान शोभा देता है (जिसप्रकार योग्यता रहित, खुशामदी नौकर शोभा नहीं देता उसीप्रकार अन्यवश मुनि शोभा नहीं देता)

*सद्धर्मरक्षामणि = सद्धर्मकी रक्षा करनेवाला मणि । (रक्षामणि = आपत्तियोंसे अथवा पिशाच आदिसेअपनेको बचानेके लिये पहिना जानेवाला मणि ।)
*राजवल्लभ = जो (खुशामदसे) राजाका मानीता (माना हुआ) बन गया हो ।