
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम् । यः खलु जिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन् शुभोपयोगेचरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन् स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णन-समुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यान-विविक्त शयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यान-शुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त : । अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादि-क्लेशपरंपरया शुभोपयोगफ लात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्नभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति । (कलश--हरिणी) त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् । सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः ॥२४५॥ यहाँ भी (इस गाथा में भी ), अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण कहा है । जो वास्तव में जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निकले हुए परम-आचार शास्त्र के क्रम से (रीति से) सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोग में चरता (प्रवर्तता) है; व्यावहारिक धर्म-ध्यान में परिणत रहता है इसीलिये १चरण करण प्रधान है;
(कलश--ताटंक)
मुनिवर देवलोकादि के क्लेश के प्रति रति छोड़ो और २निर्वाण के कारण का कारण ऐसे सहज परमात्मा को भजो, कि जो सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण स्वरूप है तथा नय-अनय के समूह से (सुनयों तथा कुनयों के समूह से ) दूर है ।अतः मुनिवरों देवलोक के क्लेशों से रति को छोड़ो । सुख-ज्ञान पूर नय-अनय दूर निज आतम में निज को जोड़ो॥२४५॥ १ चरण करण प्रधान = शुभ आचरण के परिणाम जिसे मुख्य हैं ऐसा । २ निर्वाण का कारण परम शुद्धोपयोग है और परम शुद्धोपयोग का कारण सहज परमात्मा है । |