+ अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण -
जो चरदि संजदो खलु सुहभावे सो हवेइ अण्णवसो ।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवासयलक्खणं ण हवे ॥144॥
यश्चरति संयतः खलु शुभभावे स भवेदन्यवशः ।
तस्मात्तस्य तु कर्मावश्यकलक्षणं न भवेत ॥१४४॥
संयत चरे शुभभाव में, वह श्रमण है वश अन्य के ।
अतएव आवश्यक-स्वरूप न कर्म होता है उसे ॥१४४॥
अन्वयार्थ : [यः] जो (जीव ) [संयतः] संयत रहता हुआ [खलु] वास्तव में [शुभभावे] शुभ भाव में [चरति] चरता (प्रवर्तता) है, [सः] वह [अन्यवशः भवेत्] अन्यवश है; [तस्मात्] इसलिये [तस्य तु] उसे [आवश्यकलक्षणं कर्म] आवश्यक-स्वरूप कर्म [न भवेत्] नहीं है ।
Meaning :  A saint who engages himself in good thoughtactivities, also depends upon other (objects) and therefore, his action (too) does not possess the feature of independence.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राप्यन्यवशस्याशुद्धान्तरात्मजीवस्य लक्षणमभिहितम् ।
यः खलु जिनेन्द्रवदनारविन्दविनिर्गतपरमाचारशास्त्रक्रमेण सदा संयतः सन् शुभोपयोगेचरति, व्यावहारिकधर्मध्यानपरिणतः अत एव चरणकरणप्रधानः, स्वाध्यायकालमवलोकयन् स्वाध्यायक्रियां करोति, दैनं दैनं भुक्त्वा भुक्त्वा चतुर्विधाहारप्रत्याख्यानं च करोति, तिसृषु
संध्यासु भगवदर्हत्परमेश्वरस्तुतिशतसहस्रमुखरमुखारविन्दो भवति, त्रिकालेषु च नियमपरायणः इत्यहोरात्रेऽप्येकादशक्रियातत्परः, पाक्षिकमासिकचातुर्मासिकसांवत्सरिकप्रतिक्रमणाकर्णन-समुपजनितपरितोषरोमांचकंचुकितधर्मशरीरः, अनशनावमौदर्यरसपरित्यागवृत्तिपरिसंख्यान-विविक्त शयनासनकायक्लेशाभिधानेषु षट्सु बाह्यतपस्सु च संततोत्साहपरायणः, स्वाध्यायध्यान-शुभाचरणप्रच्युतप्रत्यवस्थापनात्मकप्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यव्युत्सर्गनामधेयेषु चाभ्यन्तरतपोनुष्ठानेषु
च कुशलबुद्धिः, किन्तु स निरपेक्षतपोधनः साक्षान्मोक्षकारणं स्वात्माश्रयावश्यककर्म निश्चयतः परमात्मतत्त्वविश्रान्तिरूपं निश्चयधर्मध्यानं शुक्लध्यानं च न जानीते, अतः परद्रव्यगतत्वादन्यवश इत्युक्त : । अस्य हि तपश्चरणनिरतचित्तस्यान्यवशस्य नाकलोकादि-क्लेशपरंपरया शुभोपयोगफ लात्मभिः प्रशस्तरागांगारैः पच्यमानः सन्नासन्नभव्यतागुणोदये सति परमगुरुप्रसादासादितपरमतत्त्वश्रद्धानपरिज्ञानानुष्ठानात्मकशुद्धनिश्चयरत्नत्रयपरिणत्या निर्वाणमुपयातीति ।
(कलश--हरिणी)
त्यजतु सुरलोकादिक्लेशे रतिं मुनिपुंगवो
भजतु परमानन्दं निर्वाणकारणकारणम् ।
सकलविमलज्ञानावासं निरावरणात्मकं
सहजपरमात्मानं दूरं नयानयसंहतेः ॥२४५॥



यहाँ भी (इस गाथा में भी ), अन्यवश ऐसे अशुद्ध अन्तरात्म जीव का लक्षण कहा है ।

जो वास्तव में जिनेन्द्र के मुखारविन्द से निकले हुए परम-आचार शास्त्र के क्रम से (रीति से) सदा संयत रहता हुआ शुभोपयोग में चरता (प्रवर्तता) है; व्यावहारिक धर्म-ध्यान में परिणत रहता है इसीलिये चरण करण प्रधान है;
  • स्वाध्याय काल का अवलोकन करता हुआ (स्वाध्याय योग्य काल का ध्यान रखकर) स्वाध्याय क्रिया करता है,
  • प्रतिदिन भोजन करके चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान करता है,
  • तीन संध्याओं के समय (प्रातः, मध्याह्न तथा सायंकाल) भगवान अर्हत् परमेश्वर की लाखों स्तुति मुख-कमल से बोलता है,
  • तीनों काल नियम परायण रहता है (तीनों समय के नियमों में तत्पर रहता है), -- इसप्रकार अहर्निश (दिन-रात मिलकर) ग्यारह क्रियाओं में तत्पर रहता है;
  • पाक्षिक,मासिक, चातुर्मासिक तथा सांवत्सरिक प्रतिक्रमण सुनने से उत्पन्न हुए सन्तोष से जिसका धर्म-शरीर रोमांच से छा जाता है;
  • अनशन, अवमौदर्य, रस-परित्याग, वृत्ति-परिसंख्यान, विविक्त-शय्यासन और काय-क्लेश नाम के छह बाह्य तप में जो सतत उत्साह-परायण रहता है;
  • स्वाध्याय, ध्यान, शुभ आचरण से च्युत होने पर पुनः उसमें स्थापन-स्वरूप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य और व्युत्सर्ग नामक अभ्यन्तर तपों के अनुष्ठान में (आचरण में) जो कुशल-बुद्धिवाला है;
परन्तु वह निरपेक्ष तपोधन साक्षात् मोक्ष के कारणभूत स्वात्माश्रित आवश्यक-कर्म को -- निश्चय से परमात्म तत्त्व में विश्रान्तिरूप निश्चय धर्म-ध्यान को तथा शुक्लध्यान को -- नहीं जानता; इसलिये पर-द्रव्य में परिणत होने से उसे अन्यवश कहा गया है । जिसका चित्त तपश्चरण में लीन है ऐसा यह अन्यवश श्रमण देवलोकादि के क्लेश की परम्परा प्राप्त होने से शुभोपयोग के फल-स्वरूप प्रशस्त रागरूपी अंगारों से सिकता हुआ, आसन्न-भव्यतारूपी गुण का उदय होने पर परमगुरु के प्रसाद से प्राप्त परम-तत्त्व के श्रद्धान-ज्ञान-अनुष्ठान स्वरूप शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रय परिणति द्वारा निर्वाण को प्राप्त होता है (कभी शुद्ध-निश्चय-रत्नत्रय परिणति को प्राप्त कर ले तो ही और तभी निर्वाण को प्राप्त करता है)

(कलश--ताटंक)
अतः मुनिवरों देवलोक के क्लेशों से रति को छोड़ो ।
सुख-ज्ञान पूर नय-अनय दूर निज आतम में निज को जोड़ो॥२४५॥
मुनिवर देवलोकादि के क्लेश के प्रति रति छोड़ो और निर्वाण के कारण का कारण ऐसे सहज परमात्मा को भजो, कि जो सहज परमात्मा परमानन्दमय है, सर्वथा निर्मल ज्ञान का आवास है, निरावरण स्वरूप है तथा नय-अनय के समूह से (सुनयों तथा कुनयों के समूह से ) दूर है ।

चरण करण प्रधान = शुभ आचरण के परिणाम जिसे मुख्य हैं ऐसा ।
निर्वाण का कारण परम शुद्धोपयोग है और परम शुद्धोपयोग का कारण सहज परमात्मा है ।