
पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम् । यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन-समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपितु त्रिकालनिरावरण-नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त: । प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग-सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम्अन्यवशस्य स्वरूपमिति । तथा चोक्तम् - (कलश--अनुष्टुभ्) आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया । यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ॥ तथा हि - (कलश--अनुष्टुभ्) यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः । यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ॥२४६॥ यहाँ भी अन्यवश का स्वरूप कहा है । भगवान अर्हत् के मुखारविन्द से निकले हुए (कहे गये) मूल और उत्तर पदार्थों का सार्थ (अर्थ सहित) प्रतिपादन करने में समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि )
इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :- (कलश--दोहा)
आत्मकार्य को छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्ट से विरुद्ध ऐसी उस चिन्ता से (प्रत्यक्ष तथा परोक्ष से विरुद्ध ऐसे विकल्पों से) ब्रह्मनिष्ठ यतियों को क्या प्रयोजनहै ?ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध । आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ॥५३॥ और (कलश--दोहा)
जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है (जब तक ईंधन है तब तक अग्नि की वृद्धि होती है), उसीप्रकार जब तक जीवों को चिन्ता (विकल्प) है तब तक संसार है ।
जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर । जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूर॥२४६॥ |