+ अन्यवश का स्वरूप -
दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो ।
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसयं ॥145॥
द्रव्यगुणपर्यायाणां चित्तं यः करोति सोप्यन्यवशः ।
मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः कथयन्तीद्रशम् ॥१४५॥
जो जोड़ता चित द्रव्य - गुण - पर्याय चिन्तन में अरे !
रे मोह-विरहित - श्रमण कहते अन्य के वश ही उसे ॥१४५॥
अन्वयार्थ : [यः] जो [द्रव्यगुणपर्यायाणां] द्रव्य-गुण-पर्यायों में (उनके विकल्पों में ) [चित्तं करोति] मन लगाता है, [सः अपि] वह भी [अन्यवशः] अन्यवश है; [मोहान्धकारव्यपगतश्रमणाः] मोहान्धकार रहित श्रमण [ईद्रशम्] ऐसा [कथयन्ति] कहते हैं ।
Meaning : Even he, who meditates upon the attributes and the modifications of substances, is not independent, such has been said by the saints, who are free from the darkness of delusion.

  पद्मप्रभमलधारिदेव 

पद्मप्रभमलधारिदेव : संस्कृत
अत्राप्यन्यवशस्य स्वरूपमुक्तम् ।

यः कश्चिद् द्रव्यलिङ्गधारी भगवदर्हन्मुखारविन्दविनिर्गतमूलोत्तरपदार्थसार्थप्रतिपादन-समर्थः क्वचित् षण्णां द्रव्याणां मध्ये चित्तं धत्ते, क्वचित्तेषां मूर्तामूर्तचेतनाचेतनगुणानां मध्ये मनश्चकार, पुनस्तेषामर्थव्यंजनपर्यायाणां मध्ये बुद्धिं करोति, अपितु त्रिकालनिरावरण-नित्यानंदलक्षणनिजकारणसमयसारस्वरूपनिरतसहजज्ञानादिशुद्धगुणपर्यायाणामाधारभूतनिजात्म-तत्त्वे चित्तं कदाचिदपि न योजयति, अत एव स तपोधनोऽप्यन्यवश इत्युक्त: । प्रध्वस्तदर्शनचारित्रमोहनीयकर्मध्वांतसंघाताः परमात्मतत्त्वभावनोत्पन्नवीतराग-सुखामृतपानोन्मुखाः श्रवणा हि महाश्रवणाः परमश्रुतकेवलिनः, ते खलु कथयन्तीद्रशम्अन्यवशस्य स्वरूपमिति ।
तथा चोक्तम् -
(कलश--अनुष्टुभ्)
आत्मकार्यं परित्यज्य द्रष्टाद्रष्टविरुद्धया ।
यतीनां ब्रह्मनिष्ठानां किं तया परिचिन्तया ॥

तथा हि -
(कलश--अनुष्टुभ्)
यावच्चिन्तास्ति जन्तूनां तावद्भवति संसृतिः ।
यथेंधनसनाथस्य स्वाहानाथस्य वर्धनम् ॥२४६॥



यहाँ भी अन्यवश का स्वरूप कहा है ।

भगवान अर्हत् के मुखारविन्द से निकले हुए (कहे गये) मूल और उत्तर पदार्थों का सार्थ (अर्थ सहित) प्रतिपादन करने में समर्थ ऐसा जो कोई द्रव्यलिङ्गधारी (मुनि )
  • कभी छह द्रव्यों में चित्त लगाता है,
  • कभी उनके मूर्त-अमूर्त चेतन-अचेतन गुणों में मन लगाता है और
  • फिर कभी उनकी अर्थ-पर्यायों तथा व्यंजन-पर्यायों में बुद्धि लगाता है,
परन्तु त्रिकाल-निरावरण, नित्यानन्द जिसका लक्षण है ऐसे निज कारण-समयसार के स्वरूप में लीन सहज ज्ञानादि शुद्ध गुण-पर्यायों के आधारभूत निज आत्मतत्त्व में कभी भी चित्त नहीं लगाता, उस तपोधन को भी उस कारण से ही (पर विकल्पों के वश होने के कारण से ही) अन्यवश कहा गया है । जिन्होंने दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय कर्मरूपी तिमिर-समूह का नाश किया है और परमात्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न वीतराग सुखामृत के पान में जो उन्मुख (तत्पर ) हैं ऐसे श्रमण वास्तव में महाश्रमण हैं, परम श्रुतकेवली हैं; वे वास्तव में अन्यवश का ऐसा (उपरोक्तानुसार) स्वरूप कहते हैं ।

इसीप्रकार (अन्यत्र श्लोक द्वारा) कहा है कि :-

(कलश--दोहा)
ब्रह्मनिष्ठ मुनिवरों को दृष्टादृष्ट विरुद्ध ।
आत्मकार्य को छोड़ क्या परचिन्ता से सिद्ध ॥५३॥
आत्मकार्य को छोड़कर द्रष्ट तथा अद्रष्ट से विरुद्ध ऐसी उस चिन्ता से (प्रत्यक्ष तथा परोक्ष से विरुद्ध ऐसे विकल्पों से) ब्रह्मनिष्ठ यतियों को क्या प्रयोजनहै ?

और

(कलश--दोहा)
जबतक ईंधन युक्त है अग्नि बढ़े भरपूर ।
जबतक चिन्ता जीव को तबतक भव का पूर॥२४६॥
जिसप्रकार ईंधनयुक्त अग्नि वृद्धि को प्राप्त होती है (जब तक ईंधन है तब तक अग्नि की वृद्धि होती है), उसीप्रकार जब तक जीवों को चिन्ता (विकल्प) है तब तक संसार है ।